________________ 88] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. पडुप्पन्न वि एवं चेव, नवरं 'सिज्झति' भाणितव्वं / [13] वर्तमान काल में भी इसी प्रकार जानना / विशेष यह है कि 'सिद्ध होते हैं', ऐसा कहना चाहिए। 14. अशागते वि एवं चेव, नवरं "सिन्झिस्संति' भाणियन्त्र / [14] तथा भविष्यकाल में भी इसी प्रकार जानना / विशेष यह है कि 'सिद्ध होंगे', ऐसा कहना चाहिए। 15. जहा छउमस्थो तहा प्राधोहियो वि, तहा परमाहोहियो वि / तिणि तिण्णि मालावगा भाणियन्दा / [15] जैसा छद्मस्थ के विषय में कहा है, वैसा ही आधोवधिक और परमाधोवधिक के के विषय में जानना चाहिए और उसके तीन-तीन आलापक कहने चाहिए। केवली को मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 16. केवली णं भंते ! मणसे तीतमणंतं सासयं समयं जाव अतं करेंसु ? हंता, सिज्झिसु जाव अंतं करेंसु / एते तिणि पालावगा भाणियन्वा छउमत्थस्स जहा, नवरं सिज्झिसु, सिझति, सिज्झिरसंति / [16 प्र.] भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में केवली मनुष्य ने यावत् सर्व-दुःखों का अन्त किया है ? 16 उ. हाँ गौतम ! वह सिद्ध हमा, यावत् उसने समस्त दु:खों का अन्त किया। यहाँ भी छद्मस्थ के समान ये तीन पालापक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सिद्ध हुग्रा, सिद्ध होता है और सिद्ध होगा, इस प्रकार (त्रिकाल-सम्बन्धी) तीन आलापक कहने चाहिए। 17. से नणं भंते ! तोतमणतं सासयं समयं, पडुत्पन्नं वा सासयं समय, प्रणागतमणतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वा सम्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा, करिस्संति वा सव्वे ते उम्पन्ननाण-दसणधरा परहा जिणे केवली भवित्ता तो पच्छा सिझंति जाव अंतं करेस्संति वा? हंता, गोयमा ! तीतमणं सासतं समयं जाव अंतं करेस्संति वा / 17. प्र.] भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में, वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त शाश्वत भविष्यकाल में जिन अन्तकरों ने अथवा चरमशरीरी पुरुषों ने समस्त दुःखों का अन्त किया है, करते हैं या करेंगे; क्या वे सब उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारी, अर्हन्त, जिन और केवली होकर तत्पश्चात् सिद्ध, बुद्ध आदि होते हैं, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ? [17. उ.] हाँ, गौतम ! बीते हुए अनन्त शाश्वतकाल में यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। 18. से नणं भंते ! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली 'अलमत्थ ' ति बत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! उत्पन्न नाण-दसणधरे परहा जिणे केवली 'अलमत्थु' ति वत्तवं सिया। सेव' मते ! सेव भंते ! ति० / // चउत्थो उद्देसओ सम्मत्तो // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org