________________ प्रथम शतक : उद्देशक-४] [ 59 [18. प्र.] भगवन् ! वह उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अर्हन्त, जिन और केवलो 'अलमस्तु अर्थात्-पूर्ण है, ऐसा कहा जा सकता है ? [18 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न ज्ञानदर्शनधारी, अर्हन्त, जिन प्रोर केवली पूर्ण (अलमस्तु) है, ऐसा कहा जा सकता है / (गो.) 'हे भगवन् ! यह ऐसा ही है, भगवन् ! ऐसा ही है।' विवेचन--छदमस्थ, केवली आदि को मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सात सूत्रों (12 से 18) तक में छद्मस्थ द्विविध अवधिज्ञानी और केवली, चरम शरीरी आदि के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाणप्राप्त, सर्वदुःखान्तकर होने के विषय में त्रिकाल-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर अंकित हैं। छमस्थ-छद्म का अर्थ है-ढका हुआ। जिसका ज्ञान किसो यावरण से प्राच्छादित हो रहा है-दब रहा है, वह छदमस्थ कहलाता है / यद्यपि अवधिज्ञानी का ज्ञान भी प्रावरण से ढका होता है, तथापि आगे इसके लिए पृथक सूत्र होने से यहाँ छमस्थ शब्द से अधिज्ञानो को छोड़कर सामान्य ज्ञानी ग्रहण करना चाहिए। ___ निष्कर्ष-मनुष्य चाहे कितना हो उच्च संयमी हो, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान पर पहुँचा हुआ हो, किन्तु जब तक केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त न हो, तब तक वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकता, न हुआ है, न होगा / अवधिज्ञानी, जो लोकाकाश के सिवाय अलोक के एक प्रदेश को भी जान लेता हो, वह उसी भव में मोक्ष जाता है, किन्तु जाता है, केवली होकर ही / प्राधोऽवधि एवं परमावधिज्ञान-परिमित क्षेत्र-काल-सम्बन्धी अवधिज्ञान प्राधोऽवधि कहलाता है, उससे बहुतर क्षेत्र को जानने वाला परम-उत्कृष्ट अवधिज्ञान, जो समस्त रूपी द्रव्यों को जान लेता हो, परमावधिज्ञान कहलाता है।' / / प्रथम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 67. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org