________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-७.] [2331 देवों के स्थान प्रादि--प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थानपद में भवतवासियों का स्थान इस प्रकार बताया है-रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजना है। उसमें से एक हजारग्योजस। ऊपर और एक हजार योजनानीचे छोडकर बीच में.१ लाख 78 हजार-योजन में भवन हैं। उपपात--भक्तपतियों का उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। मारणान्लिक समुद्घात की अपेक्षा और स्थान की अपेक्षा के लोक के असंख्येय भाग में ही रहते हैं क्योंकि उनके 7 करोड 72 लाख भवना लोक के असंख्येयःभाग में ही हैं / इसी तरह प्रमुरकुमाररमादि के विश्रामें। [वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, सभी देनों के स्थानों का कथन करना चाहिए। यावता भगवान् के स्थानों का वर्णन करने वाले 'सिद्धगण्डिका' नामक प्रकरण तक कहना चाहिए। वैमानिक-प्रतिष्ठान प्रादि का वर्णन-जीवाभिगमा सूत्र के वैमानिक उद्देशक में कथिस वर्णना संक्षेप में इस प्रकार हैं-(१) प्रतिष्ठान-सौधर्म औरर ईशाना कल्पामें विमानः करें : पृथ्वी : घनदाधिों के आधार पर टिकी हुई है। इससे आगे के तीन घनोंदधि औरश्वात पर प्रतिष्ठित हैं। उसमें आगे के सभी ऊपर के विमान प्रकाश के आधार पर प्रतिष्ठिताहैं। (२)वाहरुमा (मोटाई)) और उच्चाव:- सौधर्म। और ईशान कल्प में विमानों की मोटाई. 2700 योजन और ऊलाई 500 योजन है / / ससदकुमार और: माहेन्द्र कल्प में मोटाई 2600. योजन और ऊँचाई 600 योजता है। ब्रहालोका और लान्लक में टाई 2500. योजन, ऊँचाई 700 योजन है।महाशक और सहस्रारकरूप में मोटाई:२४०००योजन, ऊँचाई 800 योजन है,। आनत, प्राणत, पारण और अच्युत देवलोकों में मोटाई:२३.०.०० योजन ऊँचाई, 900 योजन है। नवग्रे.वेयक के विमानों की मोटाई 22.0.00 योजना और ऊँचाई. 10.00 योजन है।। पंच अनुत्तर विमानों की मोटाई. 21000 योजनः प्रौर ऊँचाइ.११.०० योजना है। (3) संस्थान-.. दो प्रकार के (1) पावलिकाप्रविष्ट और (2), प्रावलिमा बाह्मा। मानिका देनः प्रावलिका-- प्रविष्ट (पंक्तिबद्ध) तीन संस्थानों वाले हैं--वृत्त (गोल)) व्यंसा (त्रिकोण) और चतुरस्त्रा (व एकोण) आवलिकाबाह्य नाना प्रकार के संस्थानों काले हैं। इसी तरह विमानों के प्रमाण, रंगा कारिल/ गनधा आदि का सब.वर्णन जीवाभिगम मूत्र से जान लेना चाहिए। / / द्वितीय शतक : सप्तमाउद्देशक समाप्त 1. (क) भगवती सूत्र अः वृत्ति पत्रांक 142-343. (ख) प्रशापनासूत्र स्थानपद-द्वितीयः पद, पृ..९४ सें:१३७. तकः 2. जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्तिः४, विमान-उद्देशकःस.सूर 09.12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org