________________ नवम शतक : उद्देशक-२ ] [ 429 नव य सया पण्णासा० इत्यादि पंक्ति का आशय-सू. 2 में 'जाव' शब्द से आगे और 'नव, शब्द से पूर्व' एगं च सयसहस्सं तेतीसं खलु भवे सहस्साई यह पाठ होना चाहिए, तभी यह अर्थ संगत हो सकता है कि 'एक लाख' तेतीस हजार नौ सौ पचास कोटाकोटि तारागण.....। सभी द्वीप-समुद्रों में चन्द्र आदि ज्योतिष्कों का अतिदेश-~-पाँचवें सूत्र में पुष्कराद्ध द्वीप में चन्द्र-संख्या के प्रश्न के उत्तर में अतिदेश किया गया है कि इस प्रकार सभी द्वीप-समुद्रों में चन्द्रमा ही नहीं, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह एवं ताराओं (समस्त ज्योतिष्कदेवों) की संख्या जीवाभिगमसूत्र से जान लेनी चाहिए / // नवम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) जीवाभिगमसूत्र 153, पत्र 300 (ख) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 427 2. (क) जीवाभिगमसूत्र सु. 175-77 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org