________________ 428 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4] धातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करवरद्वीप आभ्यन्तर पुरकरार्द्ध और मनुष्यक्षेत्र; इन सब में जीवाभिगमसूत्र के अनुसार, यावत्- "एक चन्द्र का परिवार कोटाकोटी तारागण (सहित) होता है" (यहाँ तक जानना चाहिए)। 5. पुक्खरद्धगं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा ? एवं सब्वेसु दीव-समुद्देसु जोतिसियाणं भाणियन्वं जाव सयंभूरमणे जाव सोभं सोभिसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ति। // नवम सए : बीमो उद्देसओ समत्तो // 9-2 // [5 प्र.] भगवन् ! पुष्करार्द्ध समुद्र में कितने चन्द्रों ने प्रकाश किया, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे? 5 उ.] (जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में) समस्त द्वीपों और समुद्रों में ज्योतिष्क देवों का जो वर्णन किया गया है, उसी प्रकार, यावत्-स्वयम्भूरमण समुद्र में यावत् शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे; (वहाँ तक कहना चाहिए / ) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है; (यों कह कर यावत् भगवान् गौतम विचरते हैं / ) विवेचन-जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश-प्रस्तुत द्वितीय उद्देशक में जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पूष्करवरद्वीप आदि सभी द्वीप-समूद्रों में मुख्यतया चन्द्रमा की संख्या के विषय में तथा गौणरूप से सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं की संख्या के विषय में प्रश्न किये हैं। उनके उत्तर में जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देशक का अतिदेश किया गया है। जीवाभिगमसूत्र के अनुसार--मुख्यतया चन्द्रमा की संख्या- जम्बूद्वीप में 2, लवणसमुद्र में 4, धातकीखण्डद्वीप में 12, कालोदसमुद्र में 42, पुष्करवरद्वीप में 144, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में 72 तथा मनुष्यक्षेत्र में 132, एवं पुष्करोदसमुद्र में संख्यात हैं। इसके अनन्तर मनुष्यक्षेत्र के बाहर के वरुणवरद्वीप एवं वरुणोदसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में यथासम्भव संख्यात एवं असंख्यात चन्द्रमा हैं। इसी प्रकार इन सब में सूर्य, नक्षत्र, ग्रह तथा ताराओं की संख्या भी जीवाभिगम सूत्र से जान लेनी चाहिए / इतना विशेष है कि मनुष्यक्षेत्र में जो भी चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्क देव हैं, वे सब चर हैं, जब कि मनुष्यक्षेत्र के बाहर के सब अचर (स्थिर) हैं / ' कुछ कठिन शब्दों के अर्थ-पभासिसु प्रकाश किया / सोभंसोभिसु = शोभा की या सुशोभित हुए। 1. जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 2, वृत्ति, सू. 153, 155. 175-77, पत्र 300, 303, 327-335 2. (क) भगवती. खण्ड 3, (भगवानदास दोशी) प्र. 126 (ख) भगवती. वृत्ति, पत्र 427 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org