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________________ 442] [ व्याख्याज्ञप्तिसूत्र [2] तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं वदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता मणसा चेव इम एतारूवं वागरणं पुच्छंति-कति णं भंते ! देवाणुपियाणं अंतेवासिसयाई सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ? तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहि मणसा पुटु, तेसि देवाणं मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासिसताई सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / [18-2 प्र.] तत्पश्चात् उन देवों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उन्होंने मन से हो (मन ही मन) (श्रमण भगवान महावीर से) इस प्रकार का ऐसा प्रश्न पूछा---'भगवन् ! आपके कितने सौ शिष्य सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ?' [18-2 उ.] तत्पश्चात् उन देवों द्वारा मन से पूछे जाने पर श्रमण भगवान महावीर ने उन देवों को भी मन से ही इस प्रकार का उत्तर दिया-'हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे।' [3] तए णं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुट्ठ मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरिया समाणा हद्वतुट्ठा जाव हहियया समणं भगवं महावीरं वदंति णमंसंति, 2 ता मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति / [18-3] इस प्रकार उन देवों द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न का उत्तर श्रमण भगवान् महावीर ने भी मन से ही इस प्रकार दिया, जिससे वे देव हर्षित, सन्तुष्ट (यावत्) हृदय वाले एवं प्रफुल्लित हुए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को बन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके मन से उनकी शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए अभिमुख होकर यावत् पर्युपासना करने लगे। 16. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवनो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती णाम अणगारे जाव अदूरसामंते उड्ढेजाणू जाव विहरति / [16-1j उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (पट्टशिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् न अतिदूर और न ही प्रतिनिकट उत्कुटुक (उकडू) अासन से बैठे हुए यावत् पर्युपासना करते हुए उनको सेवा में रहते थे / / [2] तए णं तस्स भगवतो गोतमस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पज्जित्था—'एवं खलु दो देवा महिड्ढोया जाव महाणुभागा समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयरातो कप्पातो वा सम्गातो वा विमाणातो वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हन्वमागता?' तं गच्छामि गं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि जाव' पज्जुवासामि, इमाइं च णं एयारूवाई वागरणाई पुच्छिस्सामि ति कटु एवं संपेहेति, 2 उट्ठाए उट्ठति, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासति / 1. 'जाव' शब्द से गौतमस्वामी द्वारा समाचरित आराधना-पर्युपासना सम्बन्धी पूर्वोक्त समग्र वर्णन कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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