________________ चतुर्थ शतक : उद्देशक-४ ] [ 443 [16-2] तत्पश्चात् ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए (प्रचलित ध्यान की समाप्ति होने पर और दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व) भगवान् गौतम के मन में इस प्रकार का इस रूप का अध्यवसाय (संकल्प) उत्पन्न हुआ-निश्चय ही महद्धिक यावत् महानुभाग (महाभाग्यशाली) दो देव, श्रमण भगवान महावीर स्वामो के निकट प्रकट हुए; किन्तु मैं तो उन देवों को नहीं जानता कि वे कौन-से कल्प (देवलोक) से या स्वर्ग से, कौन-से विमान से और किस प्रयोजन से शीघ्र यहाँ पाए हैं ? अतः मैं भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊँ और वन्दना-नमस्कार करू'; यावत् पर्युपासना करू, और ऐसा करके मैं इन और इस प्रकार के उन (मेरे मन में पहले उत्पन्न) प्रश्नों को पूछ / यों श्री गौतम स्वामी ने विचार किया और अपने स्थान से उठे। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए यावत् उनकी पर्युपासना करने लगे। [3] 'गोयमा !' इसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वदासी-से नणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेतारूवे अज्झथिए जाव जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए / से नूणं गोतमा ! अट्ठ सम? ? हंता, अस्थि / तं गच्छाहि गं गोतमा ! एते चेव देवा इमाइं एतारूबाई वागरणाई वागरेहिति / [19-3] इसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने गौतम आदि अनगारों को सम्बोधित करके भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-'गौतम ! एक ध्यान को समाप्त करके दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व (ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते समय) तुम्हारे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय (संकल्प) उत्पन्न हुआ कि मैं देवों सम्बन्धी तथ्य जानने के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को सेवा में जा कर उन्हें वन्दन-नमस्कार करू, यावत् उनकी पर्युपासना करू, उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रश्न पूछु, यावत् इसी कारण से जहाँ मैं हूँ वहाँ तुम मेरे पास शीघ्र पाए हो। हे गौतम ! यही बात है न? (क्या यह अर्थ समर्थ है ?) (श्री गौतम स्वामी ने कहा- हाँ, भगवन् ! यह बात ऐसी ही है।' (इसके पश्चात् भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-) 'गौतम ! तुम (अपनी शंका के निवारणार्थ उन्हीं देवों के पास) जायो / वे देव ही इस प्रकार की जो भी बातें हुई थीं, तुम्हें बताएँगे / ' [4] तए णं भगवं गोतमे समजेणं भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे समणं भगवं महावीरं बंदति मंसति, 2 जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्थ गमणाए / [16-4] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर द्वारा इस प्रकार की आज्ञा मिलने पर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और फिर जिस तरफ वे देव थे, उसी ओर जाने का संकल्प किया। [5] तए णं ते देवा भगवं गोतम एज्जमाणं पासंति, 2 हवा जाव हाहदया खिप्पामेव अन्भुट्ठति, 2 खिप्पामेव पच्चवगच्छंति, 2 जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छंति, 2 ता जाव णमंसित्ता एवं वदासी-एवं खलु भते! अम्हे महासुक्कातो कप्पातो महासामाणातो' विमाणातो 1. पाठान्तर-'महासग्गातो महाविमाणातो' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org