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________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [17-5] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर (तत्क्षण) उन स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर उन स्थविर मुनियों ने अति मुक्तक कुमारश्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार किया और यावत् वे उसको वैयावृत्य (सेवाशुश्रूषा) करने लगे। विवेचन-प्रतिमुक्तक कुमारश्रमण को बालचेष्टा तथा भगवान द्वारा स्थविरों का समाधान प्रस्तुत 17 वें सुत्र के पांच विभागों में अतिमुक्तक कुमारश्रमण द्वारा पात्ररूपी नोका वर्षा के जल में तिराने की बालचेष्टा से लेकर भगवान् द्वारा किये गए समाधान से स्थविरों की अतिमुक्तक मुनि की सेवा में अग्लानिपूर्वक संलग्नता तक का वृत्तान्त दिया गया है। भगवान द्वारा आविष्कृत सुधार का मनोवैज्ञानिक उपाय-यद्यपि अतिमुक्तक कुमारश्रमण द्वारा सचित्त जल में अपने पात्र को नौका रूप मानकर तिराना और क्रीड़ा करना, साधुजीवन चर्या में दोषयुक्त था, उसे देखकर स्थविरमुनियों के मन में अतिमुक्तक श्रमण के संयम के प्रति शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक था। किन्तु एक तो बालसुलभ स्वभाव के कारण अतिमुक्तक मुनि से ऐसा हुआ था, दूसरे वे प्रकृति से भद्र, सरल और विनीत थे, हठाग्रही और अविनीत नहीं थे। इसलिए एकान्त में वात्सल्यभाव से भगवान् ने उन्हें समझाया होगा, तब वे तुरन्त अपनी भूल को मान गए होंगे, और चित प्रायश्चित्त लेकर उन्होंने आत्मशुद्धि भी कर ली होगी। शास्त्र के मूलपाठ में उल्लेख न होने पर भो ‘पगइभदए जाच पगइविणीए' पदों से ऐसी संभावना की जा सकती है / दूसरी ओर-भगवान् ने स्थविरों की मनोदशा अतिमुक्तक के प्रति घृणा, उपेक्षा, अवमानना और ग्ला लानि से युक्त देखी तो उन्होंने स्थविरों को भी वात्सल्यवश सम्बोधित करके अतिमुक्तक के प्रति घृणादि भाव छोड़कर अग्लानभाव से उसकी सेवा करने की प्रेरणा दी। ऐसे मनोवैज्ञानिक उपाय से भगवान् ने दोषयुक्त व्यक्ति को सुधारने का अचूक उपाय बता दिया। साथ ही अतिमुक्तक मुनि में निहित गुणों को प्रकट करके उन्हें भगवान् ने चरमशरीरी एवं भवान्तकर बताया, यह भी स्थविरों को घृणादि से मुक्त करने का ठोस उपाय था / ' 'कुमारश्रमण'-अल्पवय में दीक्षित होने के कारण प्रतिमुक्तक को 'कुमारश्रमण' कहा गया है। दो देवों के मनोगत प्रश्न के भगवान् द्वारा प्रदत्त मनोगत उत्तर पर गौतमस्वामी का मनःसमाधान 18. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्कातो कप्पातो महासामाणातो विमाणातो दो देवा महिड्ढोया जाव' महाणुभागा समणस्स भगवान महावीरस्स अंतियं पाउन्भूता। 18-1] उस काल और उस समय में महाशुक कल्प (देवलोक) से महासामान (महासर्ग या महास्वर्ग) नामक महाविमान (विमान) से दो महद्धिक यावत् महानुभाग देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रादुर्भूत (प्रगट) हुए (पाए)। 1. (क) भगवती. (टीकानुबाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 177-1785 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 219 के अाधार पर 2. पाठान्तर—'महासग्गातो महाविमाणाम्रो' 3. 'जाव' पद से 'महज्जूती' इत्यादि देववर्णन में पाया हया समग्र विशेषणयुक्त पाठ कहना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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