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________________ 440] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [17-3] तत्पश्चात् (बाहर जाते हुए) उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण ने (मार्ग में) बहता हुआ पानी का एक छोटा-सा नाला देखा। उसे देखकर उसने उस नाले के दोनों ओर मिट्टी की पाल बांधी। इसके पश्चात् नाविक जिस प्रकार अपनी नौका पानी में छोड़ता है, उसी प्रकार उसने भी अपने पात्र को नौकारूप मानकर, पानी में छोड़ा। फिर 'यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है', यों पात्रीरूपी नौका को पानी में प्रवाहित करते (बहाते-तिराते हुए) क्रीड़ा करने (खेलने) लगे। [4] तं च थेरा प्रदक्खु / जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, 2 एवं वदासीएवं खलु देवाणप्पियाणं अंतेवासी प्रतिमुत्ते णामं कुमारसमणे, से णं भते ! अतिमुत्ते कुमारसमणे कतिहि भवग्गहहि सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ! 'प्रज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वदासी-एवं खलु प्रज्जो! ममं अंतेवासी अतिमुत्ते णाम कुमारसमणे पगतिभद्दए जाव विणीए, से गं अतिमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / तं मा णं अज्जो! तुम्मे अतिमुत्तं कुमारसमणं होलेह निदह खिसह गरहह अवमन्त्रह / तुम्मे णं देवाणुप्पिया ! अतिमुत्तं कुमारसमणं प्रगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवागण्हह, अगिलाए मत्तेणं पाणेणं विणयेणं वेयावडियं करेह। प्रतिमुत्ते गं कुमारसमणे अंतकरे चेय, अंतिमसरीरिए चेव / [17-4] इस प्रकार करते हुए उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्थविरों ने देखा / स्थविर (अतिमुक्तक कुमारश्रमण को कुछ भी कहे बिना) जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और निकट पाकर उन्होंने उनसे पूछा (कहा) [प्र.) भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) जो अतिमुक्तक कुमारश्रमण है, वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण कितने भव (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा? [उ.] 'हे पार्यो !' इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उन स्थविरों को सम्बोधित करके कहने लगे-'पार्यो ! मेरा अन्तेवासी (शिष्य) अतिमुक्तक नामक कुमारश्रमण, जो प्रकृति से भद्र यावत् प्रकृति से विनीत है; वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण इसी भव (जन्मग्रहण) से सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा / अतः हे आर्यो! तुम अतिमुक्तक कुमारश्रमण की होलना मत करो, न ही उसे झिड़को (जनता के समक्ष चिढ़ा ग्रो, डांटो या खिसना करो), न ही गर्हा (बदनामी) और अवमानना (अपमान) करो। किन्तु हे देवानुप्रियो ! तुम अग्लानभाव से (ग्लानि-घृणा या खिन्नता लाए बिना) अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्वीकार करो, अग्लान भाव से (संयम में) उसकी सहायता (उपग्रह-उपकार) करो, और अग्लानभाव से प्राहार-पानी से विनय सहित उसकी वैयावृत्य (सेवाशुश्रूषा) करो; क्योंकि अतिमुक्तक कुमारश्रमण (इसी भव में सब कर्मों का या संसार का) अन्त करने वाला है, और चरम (अन्तिम) शरीरी है / [5] तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवता महावीरेणं एवं बुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति, अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति जाव वेयावधियं करेंति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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