SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [ 439 भगवतीसूत्र के अतिरिक्त हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहरण का वृत्तान्त अन्तकृदशांग में, आचारांग भावना चूलिका में, तथा कल्पसूत्र में भी उल्लिखित है।' गर्भसंहरण के चार प्रकारों में से तीसरा प्रकार ही स्वीकार्य-मूलपाठ में गर्भापहरण के 4 तरीके विकल्परूप में उठाए गए हैं, किन्तु हरिनैगमेषी द्वारा योनि द्वारा गर्भ को निकाल कर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखना ही उपयोगी और लोकप्रसिद्ध तीसरा तरीका ही अपनाया जाता है, क्योंकि यह लौकिक प्रथा है कि कच्चा (अधूरा) या पक्का (पूरा) कोई भी गर्भ स्वाभाविक रूप से योनि द्वारा ही बाहर पाता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-साहरइ = संहरण करता है ; साहरित्तए- संहरण-प्रवेश कराने के लिए / नोह रित्तए = निकालने के लिए / प्राबाहं =थोड़ी-सी बाधा-पीड़ा, विबाहं विशेष बाधा-पीड़ा। अतिमुक्तक कुमारश्रमरण को बालचेष्टा तथा भगवान् द्वारा स्थविर मुनियों का समाधान 17. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी प्रतिमुत्ते णाम कुमारसमणे पगतिमदए जाव विणीए / [17-1] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी (समीप रहने वाले = शिष्य) अतिमुक्तक नामक कुमार श्रमण थे। वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। [2] तए णं से प्रतिमुत्ते कुमारसमणे प्रनया कयाइ महावुट्ठिकार्यसि निवयमाणंसि कक्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपट्टिते विहाराए / [17-2 (दीक्षित होने के पश्चात् वह अतिमुक्तक कुमार श्रमण किसी दिन महावृष्टिकाय (मूसलधार वर्षा) पड़ रही थी, तब कांख (बगल) में अपना रजोहरण तथा हाथ में, भोली में) पात्र लेकर बाहर विहार (स्थण्डिल भूमिका में बड़ी शंका के निवारण) के लिए रवाना (प्रस्थित) हुए (चले)। [3] तए णं से अतिमुत्ते कुमारसमणे वाह्यं वहमाणं पासति, 2 मट्टियापालि बंधति, 2 'नाविया मे 2' माविमो विव णावमयं पडिग्गहक, उदगंसि कट्ट पध्वाहमाणे पन्बाहमाणे प्रभिरमति / 1. (क) अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग 7, पृ. 1194 हरेरिन्द्रस्य नैगममादेमिच्छतीति हरिनैगमेषी, अथवा हरेरिन्द्रस्य नैगमेषी नामा देवः / (प्राव. म. 2 अ.) (ख) आचारांग अन्तिम भावना-चूलिका। (ग) अन्तकृद्दशांग अ. 7, वर्ग 4, सुलसाप्रकरण (घ) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 174-175. (ङ) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 218 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 218 (ख) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy