________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२] [127 7. सम्वुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा! दसविहे पण्णत्ते, तं जहाप्रणागतं 1 अतिक्कतं 2 कोडीसहितं 3 नियंटियं 4 चेव / सागारमणागारं 5-6 परिमाणकडं 7 निरवसेसं 8 // 1 // साकेयं 6 चेव प्रद्धाए 10, पच्चक्खाणं भवे दसहा / [7 प्र. भगवन् ! सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [7] गौतम ! सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान दस प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार(१) अनागत, (2) अतिक्रान्त, (3) कोटिसहित, (4) नियंत्रित, (5) साकार (सागार), (6) अनाकार (अनागार), (7) परिमाणकृत, (8) निरवशेष, (6) संकेत और (10) अद्धाप्रत्याख्यान / इस प्रकार (सर्वोत्तरगुण-) प्रत्याख्यान दस प्रकार का होता है / 8. देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा—दिसिव्वयं 1 उपभोग-परीभोगपरिमाणं 2 अणत्थदंडवेरमणं 3 सामाइयं 4 देसावगासियं 5 पोसहोववासो 6 अतिहिसंविभागो 7 अपच्छिममारणंतियसलेहणा असणाऽऽराहणता / [8 प्र.] भगवन् ! देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! (देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यान) सात प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) दिग्वत (दिशापरिमाणवत), (2) उपभोग-परिभोगपरिणाम, (3) अनर्थदण्डविरमण, (4) सामायिक, (5) देशावकाशिक, (6) पौषधोपवास, और (7) अतिथि-संविभाग तथा अपश्चिम मारणान्तिक-संलेखना-जोषणा-पाराधना / विवेचन--प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 2 से 8 तक) में प्रत्याख्यान के मूल और उत्तर भेदों-प्रभेदों का निरूपण किया गया है / परिभाषाएँ-चारित्ररूप कल्पवृक्ष के मूल के समान प्राणातिपातविरमण आदि 'मूलगुण' कहलाते हैं, मूलगुणविषयक प्रत्याख्यान (त्याग-विरति) 'मूलगुणप्रत्याख्यान' कहलाता है। वृक्ष की शाखा के समान मूलगुणों की अपेक्षा, जो उत्तररूप गुण हों, वे 'उत्तरगुण' कहलाते हैं, और तद्विषयक प्रत्याख्यान 'उत्तरगुण-प्रत्याख्यान' कहलाता है। सर्वथा मूलगुणप्रत्याख्यान 'सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान' और देशतः (अंशत:) मूलगुणप्रत्याख्यान 'देशमूलगुणप्रत्याख्यान' कहलाता है। सर्वविरत मुनियों के सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान और देशविरत श्रावकों के देशमूलगुणप्रत्याख्यान होता है।' दशविध सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान का स्वरूप--(१) अनागत-भविष्य में जो तप, नियम या प्रत्याख्यान करना है, उसमें भविष्य में बाधा पड़ती देखकर उसे पहले ही कर लेना / (2) प्रतिकान्त-- 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 2969 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org