________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] | 221 देवत्व किसका फल ? संयम और तप का फल श्रमणोपासकों द्वारा पूछे जाने पर स्थविरों ने क्रमशः अनाश्रवत्व एवं व्यवदान बताया। इस पर श्रमणोपासकों ने पुन: प्रश्न उठाया--संयम और तप का फल यदि संवर और व्यवदान निर्जरा है तो देवत्व की प्राप्ति कैसे होती है ? इस पर विभिन्न स्थविरों ने पूर्वतप, और पूर्वसंयम को देवत्व का का कारण बताया। इसका आशय है-वीतरागदशा से पूर्व किया गया तप और संयम / ये दोनों (पूर्वतय और पूर्वसंयम) सरागदशा में सेवित होने से देवत्व के कारण है / जबकि पश्चिम तप और पश्चिम संयम रागरहित स्थिति में होते हैं। उनका फल अनाश्रवत्व और व्यवदान है / वास्तव में देवत्व के साक्षात्कारण कर्म और संग (रागभाव) हैं / शुभ कर्मों का पुंज बढ़ जाता है, वह क्षीण नहीं किया जाता, साथ ही संयम आदि से युक्त होते हुए भी व्यक्ति अगर समभाव (संग या आसक्ति) से युक्त है तो वह देवत्व का कारण बनता है। ___ व्यवदान–'दाप्' धातु काटने और दंप शोधन करने अर्थ है, इसलिए व्यवदान का अर्थकर्मों को काटना अथवा कार्यों के कचरे को साफ करना है।' राजगह में गौतम स्वामी का भिक्षाचर्यार्थ पर्यटन 20. तेणं कालेणं 2 रायगिहे नाम नगरे जाव परिसा पडिगया / [20] उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था / वहाँ (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे / परिषद् वन्दना करने गई) यावत् (धर्मोपदेश सुनकर) परिषद् वापस लौट गई / 21. तेणं कालेणं 2 समणस्स भगवनो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती-नाम अणगारे जाव संखित्तविउलतेयलेस्से छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव विहरति / [21] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार थे। वे यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त (समेट) करके रखते थे। वे निरन्तर छह-छह (बेले-बेले) के तपश्चरण से तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे / 22. तए णं से भगवं गोतम छटुपखमणपारणसि पढ़माए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियायइ, ततियाए पोरिसीए प्रतुरियमचवलमसंभ ते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, 2 1. (य.) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 1:8-139 (ख) प्राचार्य ने कहा है पुग्व-तब-संजमा होति रागिणो पच्छिमा अरागस्स / रागो संगो वृत्तो संगा कम्म भवो तेण // (ग) तूलना-सरागसंयम-संयमासयमाऽकामनिर्जराबालतपोसिदेवस्य / '-- .-तत्त्वार्थ सूत्र अ, 6 सूत्र. 20 2. 'जाव' पद सूचक पठि—“गोयमसगोत्तं सत्त स्सेहे समचउरंतसंठाणसंठिए वइरोसहनारायसंधयणे कणगपुलक. निग्धसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततचे तत्ततवे महातवे घोरतबे उराले घोरे पोरगुणे घोरतवस्सी उन्नसरीरे"--औप. पृ. 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org