________________ 222 ] { व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ, 2 मायणाई पमज्जति, 2 भायणाई उम्गाहेति, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, 2 एवं वदासी-इच्छामि गं भंते ! तुहि अन्भणुग्णाए छट्टक्खमणयारणगंसि रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मनिझमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए / प्रहासुहं देवाणुपिया! मा पडिबंध करेह / [22] इसके पश्चात् छठ (बेले) के पारणे के दिन भगवान् (इन्द्रभूति) गौतमस्वामी ने प्रथम प्रहर (पौरुषी) में स्वाध्याय किया; द्वितीय प्रहर (पौरुषी) में ध्यान ध्याया (किया;) और ततीय प्रहर (पौरुषी) में शारीरिक शीघ्रता-रहित, मानसिक चपलतारहित, आकुलता (हड़बड़ी) से रहित होकर मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखना की; फिर पात्रों और वस्त्रों को प्रतिलेखना को; तदनन्तर पात्रों का प्रमार्जन किया और फिर उन पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। वहाँ आकर भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया और फिर इस किया—भगवन ! आज मेरे छटठ तप (बले) के पारणे का दिन है। अतः आप से अाज्ञा प्राप्त होने पर मैं राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचर्या की विधि के अनुसार, भिक्षाटन करना (भिक्षा लेने के निमित्त जाना) चाहता हूँ / ' (इस पर भगवान् ने कहा-) हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसे करो; किन्तु विलम्ब मत करो।' 23. तए णं भगव गोतमे समणेणं भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे समणस्स भगवान महावीरस्स अंतियानो गुणसिलामो चेतियाओ पडिनिक्खमइ, 2 अतुरितमचवलमसंभ ते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरतो रियं सोहेमाणे 2 जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, 2 रायगिहे नगरे उच्च-नोय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडति / __ [23] भगवान् को आज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर के पास से तथा गुणशील चैत्य से निकले। फिर वे त्वरा (उतावली), चपलता (चंचलता) और संभ्रम (आकुलता-हड़बड़ी) से रहित होकर युगान्तर (गाड़ी के जुए धूसर-) प्रमाण दूर (अन्तर) तक की भूमि का अवलोकन करते हुए, अपनी दृष्टि से आगे-आगे के गमन मार्ग का शोधन करते (अर्थात् –ईग्रासमिति-पूर्वक चलते) हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आए। वहाँ (राजगृहनगर में) ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गह-समुदाय में विधिपूर्वक भिक्षाचरी करने के लिए पर्यटन करने लगे। विवेचन--राजगह में श्री गौतमस्वामी का भिक्षाचयार्थ पर्यटन-प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रमश: भगवान् महावीर के राजगह में पदार्पण, श्रीगौतमस्वामी के छट्ठ-छटठ तपश्चरण, तप के पारणे के दिन विधिपूर्वक साधुचर्या से निवृत्त होकर भगवान से भिक्षाटन के लिए अनुज्ञा प्राप्त करने और राजगृह में ईर्या-शोधनपूर्वक भिक्षा प्राप्ति के लिए पर्यटन का सुन्दर वर्णन दिया गया है। इस वर्णन पर से निर्गन्थ साधुत्रों की अप्रमत्ततापूर्वक दैनिक चर्या की झांकी मिल जाती है। कुछ विशिष्ट शब्दों की व्याख्या-घरसमुदाणस्स = घरों में समुदान अर्थात् भिक्षा के लिए। मिक्खाचरियाए = भिक्षाचर्या की विधिपूर्वक / जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए= चलते समय अपने शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org