________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 223 का भाग तथा दृष्टिगोचर होने वाला (मार्ग का) भाग; इन दोनों के बीच का युग-जूआ-धूसर जितना अन्तर (फासला व्यवधान) युगान्तर कहलाता है। युगान्तर तक देखने वाली दृष्टि-- युगान्तरप्रलोकना दृष्टि, उससे, ई = गमन करना।' स्थविरों की उत्तरप्रदानसमर्थता आदि के विषय में गौतम की जिज्ञासा और भगवान् द्वारा समाधान--- 24. तए णं से भगव' गोतमे रायगिहे नगरे जाव (सु. 23) अडमाणे बहुजणसई निसामेति-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुगियाए नगरोए बहिया पुष्फवतीए चेतिए पासावच्चिज्जा थेरा भगनंतो समणोवासएहि इमाइं एतारूवाई वागरणाई पुच्छिया-संजमे णं भंते ! किंफले, तवे गं भंते ! किंफले ? / तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वदासी-संजमे थे प्रज्जो ! प्रणाहयफले, तवे वोदाणफले तं चेव जाव (सु. 17) पुवतवेणं पुव्यसंजमेणं कम्मियाए संगियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति, सच्चे णं एसमठे, णो चेव णं प्रायभाववत्तव्वयाए" से कमतं मन्ने एवं ? / [24] उस समय राजगृह नगर में (पूर्वोक्त विधिपूर्वक) भिक्षाटन करते हुए भगवान् गौतम ने बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार (शब्द) सुने-हे देवानुप्रिय ! तुगिका नगरी के बाहर (स्थित) पुष्पवतिक नामक उद्यान (चैत्य) में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य (पार्वापत्यीय) स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के (श्रमण भगवान महावीर के) श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन् ! संयम का क्या फल है, भगवन् ! तप का क्या फल है ?' तब (इनके उत्तर में) उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा था-"पार्यो। संयम का फल अनाश्रवत्व (संवर) है, और तप का फल व्यवदान (कों का क्षय) है। यह सारा वर्णन पहले (सु. 17) की तरह कहना चाहिए, यावत्-हे पार्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कमिता (कर्म शेष रहने से) और संगिता (रागभाव या प्रासक्ति) से देवता देवलोकों में यह बात सत्य है, इसलिए हमने कही है, हमने अपने अहंभाव (यात्मभाव) वश यह वात नहीं कही है। तो मैं (गौतम) यह (इस जनसमूह को) बात कैसे मान लू?' 25. [1] तए णं से समणे भगवं गोधमे इमोसे कहाए लट्ठ समाणे जायसड्ढे जाव समुप्पन्नकोतुहल्ले अहापज्जत्तं समुदाणं गेहति, 2 रायगिहातो नगरातो पडिनिक्खमति, 2 अतुरियं जाव सोहेमाणे जेणेव गुणसिलाए चेतिए जेणेब समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा०, 2 सम० भ० महावीरस्स प्रदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमति, एसणमणेसणं झालोएति, 2 भत्तपाणं पडिसेति, 2 समणं म० महावीरं जाव एवं वदासि-"एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहि अभणण्णाते समाणे रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस भिवखायरियाए अडमाणे बहुजणसई निसाममि 'एव खलु देवाणुप्पिया ! तुगियाए नगरीए बहिया पुष्फवईए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासहि इमाई एतारूवाइं वागरणाइं पुच्छिता-संजमे णं भंते ! किफले ? तवे किंफले ? तं चेव जाव (सु. 17) सच्चे णं एसमठे, णो चेव णं प्राय भाववतन्त्रयाए'। 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org