________________ 224 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [25-1] इसके पश्चात श्रमण भगवान् गौतम ने इस प्रकार की बात लोगों के मुख से सुनी तो उन्हें [उस बात की जिज्ञासा में श्रद्धा उत्पन्न हुई, और यावत् (उस बात के लिए) उनके मन में कुतहल भी जागा। अतः भिक्षाविधिपूर्वक आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वे राजगहनगर (की सीमा) से बाहर निकले और अत्वरित गति से यावत् (ईर्यासमितिपूर्वक) ईर्या-शोधन करते हुए जहाँ गुणशीलक चैत्य था, और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पाए / फिर उनके निकट उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, (भिक्षाचर्या में लगे हुए) एषणादोषों की आलोचना की, फिर (लाया हुआ) आहार-पानी भगवान को दिखाया। तत्पश्चात् श्रीगौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार निवेदन किया"भगवन् ! मैं आपसे प्राज्ञा प्राप्त करके राजगृहनगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा-चर्या की विधिपूर्वक भिक्षाटन कर रहा था, उस समय बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार सुने कि तुगिका नगरी के बाहर (स्थित) पुष्पवतिक नामक उद्यान में पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन ! संयम का क्या फल है ? और तप का क्या फल है ?' यह सारा वर्णन पहले (सू. 17) की तरह कहना चाहिए; यावत् यह बात सत्य है, इसलिए कही है, किन्तु हमने अहं (अात्म) भाव के वश होकर नहीं कही। [2] "तं पभू गं भंते ! ते थेरा भगवतो तेसि समणोवासयणं इमाई एतारूवाइं वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अप्पभू?, समिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासगाणं इमाई एतारूवाई वागरणाई वागरित्तए? उदाह असमिया ?, प्राउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अणाउज्जिया ?, पलिउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अपलिउज्जिया?, पुवतवेणं प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति, पुरुवसंजमेणं०, कम्मियाए०, संगियाए, पुचतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति / सच्चे णं एस म8 जो चेव चं प्रायभाववत्तन्वयाए?" / [25-2 प्र.] (यों कहकर श्री गौतम स्वामी ने पूछा-) हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों के प्रश्नों के ये और इस प्रवार के उत्तर देने में समर्थ हैं, अथवा असमर्थ हैं ? भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन् उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में सम्यकरूप से ज्ञानप्राप्त (समित या सम्पन्न) (अथवा श्रमित शास्त्राभ्यासी या अभ्यस्त) हैं, अथवा असम्पन्न या अनभ्यस्त हैं ? (और) हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में उपयोग वाले हैं या उपयोग वाले नहीं हैं ? भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में परिज्ञानी (विशिष्ट ज्ञानवान्) हैं, अथवा विशेष ज्ञानी नहीं हैं कि सार्यो ! पूर्वतप से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, तथा पूर्वसंयम से, कमिता से और संगिता (आसक्ति) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यह बात सत्य है, इसलिए हम कहते हैं, किन्तु अपने अहंभाव वश नहीं कहते हैं ? [3] पभू गं गोतमा ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org