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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 225 वागरेत्तए, यो चेव णं अप्पभू, तह चेव नेयम्व अविसेसियं जाव पभू समिया प्राउज्जिया पलि उजिया जाव सच्चे णं एस मढे णो चेव णं प्रायभाववत्तम्बयाए / [25-3 उ.](महावीर प्रभु ने उत्तर दिया-) हे गौतम ! वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं, असमर्थ नहीं; (शेष-सब पूर्ववत् जानना) यावत् वे सम्यक् रूप से सम्पन्न (समित) हैं अथवा अभ्यस्त (अमित) हैं ; असम्पन्न या अनभ्यस्त नहीं ; वे उपयोग वाले हैं, अनुपयोग वाले नहीं; वे विशिष्ट ज्ञानी हैं, सामान्य ज्ञानी नहीं। यह बात सत्य है, इसलिए उन स्थविरों ने कही है, किन्तु अपने अहंभाव के वश होकर नहीं कही। [4] अहं पि गं गोयमा ! एवमाइक्लामि भासेमि पण्णवेमि परूबेमि-पुन्वतवेणं देवा देवलोएसु उववज्जति, पुव्वसंजमेणं देवा देवलोएसु उववज्जति, कम्मियाए देवा देवलोएसु उववज्जंति, संगियाए देवा देवलोएसु उववज्जति, पुब्धतवेणं पुव्वसं जमेणं कम्मियाए संगियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति; सच्चे णं एस मठे, णो चेव णं प्रायभाववत्तन्वयाए / [25-4 उ.] हे गौतम ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बताता हूँ और प्ररूपणा करता है कि पूर्वतप के कारण से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं. पूर्वसंयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, कमिता (कर्मक्षय होने बाकी रहने) से देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं तथा संगिता (आसक्ति या रागभाव) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं / (निष्कर्ष यह है कि) आर्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कमिता और संगिता से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यही बात सत्य है; इसलिए उन्होंने कही है, किन्तु अपनी अहंता प्रदर्शित करने के लिए नहीं कही। विवेचन--स्थविरों को उत्तरप्रदान-समर्थता आदि के विषय में गौतम के प्रश्न और भगवान द्वारा समाधान प्रस्तुत दो सूत्रों (24 और 25) में श्री गौतमस्वामी ने राजगृह में भिक्षाटन करते समय पापित्यीय स्थविरों की ज्ञानशक्ति के सम्बन्ध में जो सुना था, भगवान महावीर से उन्होंने विभिन्न पहलुओं से उनके सम्बन्ध में जिज्ञासावश पूछकर जो यथार्थ समाधान प्राप्त किया था उसका सांगोपांग निरूपण है। समिया' आदि पदों को व्याख्या-समिया - सम्यक्, अथवा समित सम्यक् प्रकार से इत अर्थात् ज्ञात, अथवा श्रमित = शास्त्रज्ञान में श्रम किये हुए अभ्यस्त / प्राउज्जिय = प्रायोगिक उपयोगवान् अर्थात्-ज्ञानी / पलिउज्जियः प्रायोगिक अथवा परियोगिक-परिज्ञानी - सर्वतोमुखी ज्ञानवान् / ' एसणमणेसणं =यतना(एषणा) पूर्वक की हुई भिक्षाचरी में लगे हुए दोष का। श्रमण-माहनपर्युपासना का अनन्तर और परम्पर फल 26. [1] तहारूबणं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किफला पज्जु वासणा ? गोयमा ! सवणफला। [26-1 प्र.] भगवन् ! तथारूप (जैसा वेश है, तदनुरूप गुणों वाले) श्रमण या माहन की पर्युपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना का क्या फल मिलता है ? 1. भगवती मूत्र अ. वृति, पत्रांक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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