________________ 226 / / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26-1 उ.] गौतम ! तथारूप श्रमण या माहन के पर्युपासक को उसकी पर्युपासना का फल होता है---श्रवण (सत्-शास्त्र श्रवणरूप फल मिलता है)। / [2] से णं भंते ! सवणे किंफले ? जाणफले / [26-2 अ.] भगवन् ! उस श्रवण का क्या फल होता है ? [26-2 उ.] गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। (अर्थात-शास्त्र-श्रवण से ज्ञानलाभ होता है।) [3] से पं भंते ! नाणे किंफले ? विष्णाणफले। [26-3 प्र.] भगवन् ! उस ज्ञान का क्या फल है? [26.3 उ.] गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है (अर्थात् ज्ञान से हेय और उपादेय तत्त्व के विवेक की प्राप्ति होती है !) [4] से णं भंते ! विण्णाणे किफले ? पच्चक्खाणफले। [26.4 प्र.] भगवन् ! उस विज्ञान का क्या फल होता है ? [26.4 उ.] गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान (हेय पदार्थों का त्याग) है / [5] से ण भंते ! पच्चक्खाणे किंफले ? संजमफले। [26-5 प्र.] भगवन् ! प्रत्याख्यान का क्या फल होता है ? [26-5 उ.] गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम (सर्वसावत्या गरूप संयम अथवा पृथ्वीकायादि 17 प्रकार का संयम) है। [6] से गं भते ! संजमे किफले ? अणण्हयफले। |26-6 प्र.] भगवन् ! संयम का क्या फल होता है ? [26-6 उ.] गौतम ! संयम का फल अनाश्रवत्व (संवर-नवीन कर्मों का निरोध) है। [7] एवं अणण्हये तवफले / तवे बोदाणफले / बोदाणे अकिरियाफले / [26-7] इसी तरह अनाश्रवत्व का फल तप है, तप का फल व्यवदान (कर्मनाश) है और व्यवदान का फल अक्रिया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org