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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 227 [4] से गं भंते ! प्रकिरिया किफला ? सिद्धिपज्जबसाणफला पण्णत्ता गोयमा ! गाहा सवणे जाणे य विण्णाणे पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हये तवे चेव बोदाणे प्रकिरिया सिद्धी // 1 // [26-8 प्र.] भगवन् ! उस प्रक्रिया का क्या फल है ? [26-8 उ.] गौतम ! प्रक्रिया का अन्तिम फल सिद्धि है। (अर्थात्-प्रक्रियता-प्रयोगी अवस्था प्राप्त होने पर अन्त में सिद्धि-मुक्ति प्राप्त होती है / ) गाथा का अर्थ इस प्रकार है 1. (पर्युपासना का प्रथम फल) श्रवण, 2. (श्रवण का फल) ज्ञान, 3. (ज्ञान का फल) विज्ञान, 4. (विज्ञान का फल) प्रत्याख्यान, 5. (प्रत्याख्यान का फल) संयम, 6. (संयम का फल) अनाश्रवत्व, 7. (अनाश्रवत्व का फल) तप, 8. (तप का फल) व्यवदान, 9. (व्यवदान का फल) अक्रिया, और 10. (प्रक्रिया का फल) सिद्धि है। विवेचन-श्रमण-माहन-पर्युपासना का अनन्तर प्रौर परम्पर फल-प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न विभागों द्वारा श्रमण और माहन को पर्युपासना का साक्षात् फल श्रवण और तदनन्तर उत्तरोत्तर ज्ञानादि फलों के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। श्रमण जो श्रम (आत्मगुणों के लिए स्वयं श्रम या तप), सम (प्राणिमात्र को प्रात्मवत् मानने) और शम (विषय-कषायों के उपशमन) से युक्त हो, वह साधु / ___माहन -जो स्वयं किसी जीव का हनन न करता हो, और दूसरों को 'मत मारो' ऐसा उपदेश देता हो। उपलक्षण से मुलगुणों के पालक को 'माहन' कहा जाता है। अथवा 'माहन' व्रतधारी श्रावक को भी कहते हैं। श्रमण-माहन-पर्युपासना से अन्त में सिद्धि-श्रमणों की सेवा करने से शास्त्र-श्रवण, उससे श्र तज्ञान, तदनन्तर श्रु तज्ञान से विज्ञान-(हेय-ज्ञेय-उपादेय का विवेक) प्राप्त होता है / जिसे ऐसा विशेष ज्ञान होता है, वही पापों का प्रत्याख्यान या हेय का त्याग कर सकता है / प्रत्याख्यान करने से मन, वचन, काय पर या पृथ्वीकायादि पर संयम रख सकता है / संयमी व्यक्ति नये कर्मों को रोक देता है / इस प्रकार का लघुकमी व्यक्ति तप करता है / तप से पूराने कर्मों की निर्जरा (व्यवदान) होती है / यो कर्मों को निर्जरा करने से व्यक्ति योगों का निरोध कर लेता है, योग निरोध होने से क्रिया बिलकुल बंद हो जाती है, और अयोगी (प्रक्रिय) अवस्था से अन्त में मुक्ति (सिद्धि) प्राप्त हो जाती है / यह है-श्रमणसेवा से उत्तरोत्तर 10 फलों की प्राप्ति का लेखा-जोखा ! 1 राजगह का गर्मजल का स्रोत : वैसा है या ऐसा ? 27. अण्ण उस्थिया गं भंते ! एवमाइक्खंति भासेंति पण्णवेति परुति--एवं खलु 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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