________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'पुढवी' अष्टम उद्देशक : 'पृथ्वी' रत्नप्रभादि पृथ्वियों तथा सर्वदेवलोकों में गृह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व और कर्तृत्व की प्ररूपरणा 1. कइ णं माते ! पुढवीओ पण्णत्तायो ? गोयमा ! अट्ठ पुढवीनो पण्णताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव ईसीपभारा। [1 प्र.] भगवन् ! कितनी पृथ्वियाँ कही गई हैं ?' [1 उ.] गौतम ! आठ पृथ्वियाँ कही गई हैं। वे इस प्रकार-(१) रत्नप्रभा, (1) शर्कराप्रभा (3) बालुकाप्रभा, (4) पंकप्रभा, (5) धूमप्रभा, (6) तमःप्रभा, (7) महातमःप्रभा और (8) ईषत्प्रारभारा। 2. अत्थि गं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए अहे गेहा ति वा गेहावणा ति बा ? गोयमा ! णो इण? सम8 / / [2 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे गृह (घर) अथवा गृहापण (दुकानें) हैं ? [2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्-रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे गृह या गृहापण नहीं हैं।) 3. अस्थि णं भते ! इमोसे रयणप्पभाए अहे गामा ति वा जाव सन्निवेसा ति वा? नो इण8 सम8। [3 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? [3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्--रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश नहीं हैं।) 4. अस्थि णं भते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला बलाहया संसेयंति, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ? हंता, अस्थि / [4 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभाषथ्वी के नीचे महान् (उदार) मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? [4 उ.] हाँ गौतम ! (वहाँ महामेध संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा भी बरसाते) हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org