________________ छठा शतक : उद्देशक i63 5. तिणि वि परिति—देवो विपकरेति, असुरो वि प०, नागो विप० / [5] ये सब कार्य (महामेघों को संस्वेदित एवं सम्मूच्छित करने तथा वर्षा बरसाने का कार्य). ये तीनों करते हैं—देव भी करते ते, असुर भी करते हैं और नाग भी करते हैं। 6. अत्यि णं भते ! इमोसे रयण बादरे थणियसद्दे ? हंता, अस्थि / [6 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में बादर (स्थूल) स्तनितशब्द (मेघगर्जना की आवाज) है? 7. तिणि वि पकरेंतिा [6-7 उ.] हां, गौतम ! बादर स्तनितशब्द है, जिसे (उपर्युक्त) तीनों ही करते हैं / 8. अस्थि णं भते ! इमोसे रयणघ्यभाए अहे बादरे अगणिकाए ? गोयमा ! नो इण? सम?, नऽन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं। [8 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे बादर अग्निकाय है ? [8 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / यह निषेध विग्रह-गतिसमापन्नक जीवों के सिवाय (दूसरे जीवों के लिए समझना चाहिए / ) 6. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयण अहे चंदिम जाव तारारूवा ? नो इण8 सम8। [6 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। 10. अस्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्यभाए पुढवीए चंदामा ति वा 2 / णो इण? सम?। _ [10 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में चन्द्राभा (चन्द्रमा का प्रकाश), सूर्याभा (सूर्य का प्रकाश) आदि हैं ? [10 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। 11. एवं दोच्चाए वि पुढवीए भाणियव्वं / [11] इसी प्रकार (पूर्वोक्त सभी बातें) दूसरी पृथ्वी (शर्कराप्रभा) के लिए भी कहना चाहिए। 12. एवं तच्चाए वि भाणियन्वं, नवरं देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, णो णागो पकरेति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org