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________________ 10 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रक–अनुदीरक) तक जानना चाहिए; परन्तु इतना विशेष है कि वेदनीय और आयुप्य कर्म (के उदीरक) मे पूर्वोक्त पाठ भंग कहने चाहिए। [-अाठवाँ द्वार] विवेचन-उत्पलजीव के अष्टकर्म बन्धक-अबन्धक, वेदक-अवेदक, उदयी-अनुदयी, उदीरक -अनुदीरक सम्बन्धी विचार–प्रस्तुत 5 सूत्रों (6 से 13 तक) में उत्पलजीवों के ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म के बन्धक-प्रबन्धक, वेदक-अवेदक, उदयो-अनुदयो एवं उदीरक-अनुदीरक होने के सम्बन्ध में भगवान् का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानावरणीयादि कर्मों के बंध प्रादि क्यों और कैसे ? —जैनेतर दर्शनिक या अन्य यूथिक प्रायः यह समझते हैं कि उत्पल (कमल) का जीव एकेन्द्रिय होने से उसमें संज्ञा (समझने-सोचने की बुद्धि) नहीं होती, द्रव्यमन न होने से वह कोई विचार कर नहीं सकता। ऐसी स्थिति में वह ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध, वेदन, उदय या उदीरणा कैसे कर सकता है ? इसी हेतु से प्रेरित हो कर पहले से आठवे उद्देशक तक श्री गौतमस्वामी ने ये बधादिविषयक प्रश्न उठाए हों और भगवान् ने इनका अनेकान्त दृष्टि से उत्तर दिया हो, ऐसा सम्भव है / भगवान् के उत्तरों से ध्वनित होता है कि एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों में अन्तश्चेतना (भावसंज्ञा) तथा भावमन होता है, जिसके कारण वे चाहे विकसित चेतना वाले न हों, परन्तु मिथ्यात्वदशा में होने से विपरीतदिशा में सोच कर भी ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध कर लेते हैं। बे कर्मों को वेदते भी हैं, उदय वाले भी होते हैं और उदीरणा भी विपरीत दिशा में कर लेते है।। एक-अनेक जीव बंधक आदि कैसे ? उत्पल के प्रारम्भ में जब उसके एक ही पत्ता होता है, तब एक ही जीव होने से एक जीव ज्ञानावरणीय प्रादि कमों का बन्धक होता है, परन्तु जब उसके अनेक पत्ते होते हैं तो उसमें अनेक जीव होने से अनेक जीव बन्धक होते हैं / प्रायुष्यकर्म तो पूरे जीवन में एक ही बार बंधता है, उस बन्धकाल के अतिरिक्त, जीव आयुष्यकर्म का प्रबन्धक होता है / इसलिए आयुष्यकर्म के बन्धक और प्रबन्धक की अपेक्षा से आठ भंग होते हैं, जिनमें चार असयोगी और चार द्विकसंयोगी होते हैं।' वेदक एवं उदीरक भंग-वेदकद्वार में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो भंग होते हैं, परन्तु सातावेदनीय और असातावेदनीय की अपेक्षा से पूर्वोक्त पाठ भंग होते हैं / उदीरणाद्वार में छह कर्मों में प्रत्येक में दो-दो भंग होते हैं, किन्तु वेदनीय और आयुष्य कर्म के पूर्वोक्त पाठ भंग होते हैं / 2 6. लेश्याद्वार 14. ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा? गोयमा ! कण्हलेस्से वा जाव तेउलेस्से वा, कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा, अहवा कण्हलेस्से य नीललेस्से य, एवं एए दुयासंजोग-तियासंजोग-चउक्कसंजोगेण य असोति भंगा भवंति / [दारं 9] / _ [14 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव, कृष्णलेश्या वाले होते हैं, नीललेश्या वाले होते हैं, या कापोतलेश्या वाले होते हैं, अथवा तेजोलेश्या वाले होते हैं ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 512 2. वही, अ. वत्ति, पत्र 512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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