________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-संवेगादि धर्मों का अन्तिम फल-प्रस्तुत सूत्र में संवेग आदि 49 पदों का उल्लेख करके इनके आचरण का अन्तिम फल मोक्ष बताया गया है। कठिनशब्दार्थ-संवेग-मोक्षाभिलाषा, निर्वेद-संसार से विरक्ति, गुरुसार्मिक-शुश्रूषा -- दीक्षादि-प्रदाता प्राचार्य एवं सामिक साधुवर्ग की शुश्रूषा-सेवा / पालोचना-गुरु के समक्ष समस्त दोषों का प्रकाशन करना / निन्दना--अपने द्वारा स्वकीय दोषों के लिए पश्चात्ताप, प्रारमनिन्दा / गहणा-दूसरे (बड़ों या संघ) के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना / क्षमापना-अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगना / अपने प्रति किये गए अपराधों की दूसरों को क्षमा देना / व्युपशमनताउपशान्तता, दूसरों को क्रोध से निवृत्त करते हुए स्वयं क्रोध का त्याग करना / श्रुतसहायता -- शास्त्राध्ययन में सहयोग देना / अथवा जिस साधक के लिए श्रुत ही एकमात्र सहायक हो, उसकी श्रुत-सहायता-भावना। भाव-अप्रतिबद्धता हास्यादि भावों के प्रति प्रासक्ति न रखना / विनिवर्तना--पापों अथवा असंयमस्थानों से विरति। विविक्तशय्यासनसेवनता-स्त्री-पशु-पंडक से असंसक्त शयन आसन-अथवा उपाश्रय का सेवन करना। श्रोत्रादि इन्द्रिय संवर-अपने-अपने विषय में जाती हुई इन्द्रियों को रोकना / योग-प्रत्याख्यान-मन-वचन-काया के अशुभ व्यापारों को रोकना / शरीर. प्रत्याख्यान -शरीर में प्रासक्ति का त्याग करना / कषाय-प्रत्याख्यान-क्रोधादि का त्याग / संभोगप्रत्याख्यान--एक क(पंक्ति मण्डली में बैठकर साधनों का भोजनादि व्यवहार करना 'संभोग' है, जिनकल्पादि साधना या उत्कृष्ट प्रतिमा धारण करके उक्त सम्भोग का त्याग करना / उपधि-प्रत्याख्यानअधिक उपधि का त्याग करना / भक्त-प्रत्याख्यान-संलेखना-संथारा करना अथवा उपवासादि करता / क्षमा-क्षान्ति / विरागता-वीतरागता, रागद्वेषविरतता भावसत्य-शुद्ध अन्तरात्मता रूप पारमार्थिक भावों की यथार्थता / योगसत्य-मन-वचन-काया की एकरूपता। करणसत्य-प्रतिलेखनादि क्रियाएँ यथार्थ रूप से करना / मन, वचन, काया को वश में रखना, क्रमशः मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण और काय-समन्दाहरण है / क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापों का त्याग करना क्रोधविवेक यावत मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक है। वेदनाऽध्यासनता- क्षधादि वेदना को समभावपूर्वक सहन करना / मारणान्तिकाध्यासनता-मारणान्तिक कष्ट पाने पर भी सहनशीलता रखना।" / / सत्तरहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, 717 (ख) विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिये-उत्तराध्ययनसूत्र अ. 29 तथा उसकी पाई टोका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org