________________ 712] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रणिधान : तीन प्रकार तथा नरयिकादि में प्रणिधान की प्ररूपणा 12. कतिविधे णं भंते ! पणिहाणे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा–मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे / [12 प्र.] भगवन् ! प्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? 612 उ.] गौतम ! प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) मन:प्रणिधान, (2) वचन-प्रणिधान और (3) काय-प्रणिधान / 13. नेरतियाणं भंते ! कतिविहे पणिहाणे पन्नत्ते ? एवं चेव। [13 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रणिधान कहे गए हैं ? [13 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) (तीनों प्रणिधान इनमें होते हैं / ) 14. एवं जाव थणियकुमाराणं / [14] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए। 15. पुढविकाइयाणं० पुच्छा / गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पन्नते। [15 प्र.] भंते ! पृथ्वी कायिक जीवों के प्रणिधान के विषय में प्रश्न ? [15 उ.] गौतम ! इनमें एकमात्र कायप्रणिधान ही होता है। 16. एवं जाव वणस्सतिकाइयाणं / [16] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिए। 17. बेइंदियाणं० पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पणिहाणे पन्नते, तं जहा-वइपणिहाणे य कायपणिहाणे य। [17 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के विषय में प्रश्न ? [17 उ.] गौतम ! उनमें दो प्रकार का प्रणिधान होता है। यथा-वचन-प्रणिधान और काय-प्रणिधान / 18. एवं जाव चरिदियाणं / [18] इसी प्रकार यावत् चनुरिन्द्रिय जीवों तक कहना चाहिए। 19. सेसाणं तिविहे वि जाव वेमाणियाणं / [16] शेष सभी जीवों के, यावत् वैमानिकों तक के तीनों प्रकार के प्रणिधान होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org