________________ 678] মিথামলিগ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चोतीसइमे सए : पढमे अवांतरसए : बिडी उद्देसनो समतो // 34 // 1 // 2 // [7-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [7-2 उ. गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे हैं / यथा कई जीव समान प्राय और समान उत्पत्ति वाले होते हैं, जबकि कई जीव समान प्राय और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं। इनमें से जो समान आयु और समान उत्पत्ति बाले हैं, वे तुल्यस्थिति वाले परस्पर तुल्यविशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो समान अायु और विषम उत्पत्ति वाले हैं वे तुल्य स्थिति वाले विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि""यावत् विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-~पहले उद्देशक में उत्पत्ति और स्थिति की अपेक्षा 4 भंग कहे थे / उनमें से विषम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम दो भंग अनन्तरोपपन्नक जीव में नही पाए जाते, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक में विषम स्थिति का अभाव है।' ॥चौतीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 956 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3715 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org