________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [399 अभ्यस्त हो गया है / चिरझसिए-चिरज षित-चिरकाल से तू मेरे साथ सेवित है, अथवा चिरकाल मे तेरी मेरे प्रति प्रीति रही है। चिराणगए-चिरानुगत, चिरकाल से तु मेरा अनुगामी-अनुसरणकर्ना है / चिराणुवित्ती-चिरानुवृत्ति, चिरकाल से तेरी वृत्ति मेरे अनुकूल रही है / इप्रो चुए इस मनुष्य भव से च्युत होने पर / एगट्ठा : दो रूप : दो प्रर्थ -(1) एकार्थ--एक (समान) अनन्तसुखरूप अर्थ--प्रयोजन वाले. (2) एकस्थ-मिद्धिक्षेत्र को अपेक्षा से एक क्षेत्राश्रित / भक्सेिसमणाणत्ता-ज्ञान-दर्शनादिपर्यायों में एक समान तथा अभिन्न (भिन्नतारहित)।' अनुत्तरौपपातिक देवों को जानने-देखने को शक्ति को प्ररूपणा 3. [1] जहा णं भंते ! वयं एयम8 जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोववातिया वि देवा एयम? जाणंति पासंति ? __ हंता, गोयमा ! जहा गं वयं एयम जाणामो पासामो तहा अणुत्तरोववातिया वि देवा एयम8 जाणंति पासंति। [3-1 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार अपन दोनों इस (पूर्वोक्त) अर्थ को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ (बात) को जानते-देखते हैं ? [3-1 उ.] हां,गौतम ! जिस प्रकार अपन दोनों इस (पूर्वोक्त) बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं। [2] से केणटुणं जाव पासंति ? / गोयमा ! अणुत्तरोववातियाणं अणंताओ मणोदव्ववग्गणाप्रो लद्धाश्रो पत्तानो अभिसमन्नागयानो भवंति, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति जाव पासंति / [3-2 प्र] भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी जानते-देखते हैं ? [3-2 उ.] गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को (अवधिज्ञान की लब्धि से) मनोद्रव्य को अनन्त वगंणाएँ (ज्ञेयरूप से) लब्ध (उपलब्ध) हैं, प्राप्त हैं, अभिसमन्वागत होती हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् अनुत्तरौपपातिक देव भो जानते-देखते हैं। विवेचन प्रश्नोत्थान का आशय-भगवान् के कथन से आश्वासन पा कर गौतमस्वामी ने दुसरा प्रश्न उठाया भगवन् ! भविष्य में इस भव के छूटने पर हम दोनों तुल्य और ज्ञान-दर्शनादि में समान हो जाएँगे, यह बात अाप तो केवलज्ञान से जानते हैं, मैं आपके कथन से जानता हूँ, किन्तु क्या अनुत्तरोषपातिक देव भी यह बात जानते-देखते हैं ? यह इस प्रश्न का प्राशय है। भगवान का उत्तर अनुतरौपपातिक देव विशिष्ट अवधिज्ञान द्वारा मनोद्रव्यवर्गणाओं को जानते-देखते हैं। अयोगी-अवस्था में प्रदर्शन के कारण हम दोनों के निर्वाणगमन का निश्चय करते 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 647 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org