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________________ सत्तमो उद्देसओ : 'संसि?' सातवां उद्देशक : 'संश्लिष्ट' भगवान् द्वारा गौतमस्वामी को इस भव के बाद अपने समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का प्राश्वासन 1. रायगिहै जाव परिसा पडिगया। [1] राजगृह नगर में यावत् परिषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई / 2. गोयमा !' दो समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासीचिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा!, चिरसंथुतोऽसि मे गोयमा !, चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा ! , चिर - सिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगमोऽसि मे गोयमा! चिराणुवत्तो सि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए, अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इतो जुता, दो वि तुल्ला एगट्ठा प्रविसेसमणापत्ता भविस्सामो। [2] श्रमश भगवान् महावीर ने, 'हे गौतम !' इस प्रकार भगवान् गौतम को सम्बोधित करके यों कहा - गौतम ! तू मेरे साथ चिर-संश्लिष्ट है, हे गौतम ! तू मेरा चिर-संस्तुत है, तू मेरा चिर-परिचित भी है / गौतम ! तू मेरे साथ चिर-सेवित या चिरप्रीत है। चिरकाल से, हे गौतम ! तू मेरा अनुगामी है। तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है, गौतम ! इससे (पूर्व के) अनन्तर देवलोक में (देवभव में) तदनन्तर मनुष्यभव में (स्नेह सम्बन्ध था)। अधिक क्या कहा जाए, इस भव में मृत्यु के पश्चात्, इस शरीर से छूट जाने पर, इस मनुष्यभव से च्युत हो कर हम दोनों तुल्य (एक सरीखे) और एकार्थ (एक ही प्रयोजन वाले, अथवा एक ही लक्ष्य-सिद्धिक्षेत्र में रहने वाले) तथा विशेषतारहित एवं किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित हो जाएंगे। विवेचन-भगवान महावीर द्वारा श्री गौतमस्वामी को आश्वासन-अपने द्वारा दीक्षित शिष्यों को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने एवं स्वयं को चिरकाल तक केवलज्ञान प्राप्त न होने से खिन्न बने हुए श्री गौतमस्वामी को आश्वासन देते हुए भगवान महावीर कहते हैं--गौतम, तू चिरकाल से मेरा परिचित है, अतएव तेरा मेरे प्रति भक्तिराग होने से तुझे केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा है, इत्यादि / इसलिए खिन्न मत हो / हम दोनों इस शरीर के छूट जाने पर एक समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाएंगे।' कठिनशब्दार्थ-भावार्थ-चिरसंसिटो-चिरकाल से संश्लिष्ट, अर्थात चिरकाल से स्नेह से बद्ध / चिरसंथुओ-चिरसंस्तुत, अर्थात् चिरकाल से स्नेहवश तूने मेरी प्रशंसा की है। चिरपरिचित्रोचिरपरिचित-मेरे साथ तेरा लम्बे समय से परिचय रहा है / या पुनः पुनः दर्शन से तू चिरकाल से -- --- 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 647 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2328 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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