________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] 16. तेणं भंते! जीवा किनाणी, प्रानाणी? ahe गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी वा अन्नाणिणो वा / [दारं 11] / [16 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव ज्ञानी हैं, अथवा अज्ञानी हैं ? [16 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं हैं, किन्तु वह एक अज्ञानी है अथवा वे अनेक भी अज्ञानी -ग्यारहवाँ द्वार) 17. ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, णो वहजोगी, कायजोगी वा कायजोगिणो वा / [दारं 12] / [17 प्र. भगवन् ! वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, अथवा काययोगी हैं ? [17 उ.] गौतम ! वे मनोयोगी नहीं हैं, न वचनयोगी हैं, किन्तु वह एक हो तो काययोगी है और अनेक हों तो भी काययोगी है / [-बारहवाँ द्वार 18. ते गं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोबउत्ते वा अणागारोबउत्ते वा, अट्ठ भंगा। [दारं 13] / [18 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव साकारोपयोगी हैं, अथवा अनाकारोपयोगी हैं ? / [18 उ.] गौतम ! वे साकारोपयोगी भी होते हैं और अनाकारोपयोगी भी होते हैं / इसके पूर्ववत् पाठ भंग कहने चाहिए / -तेरहवाँ द्वार विवेचन--उत्पलजीवों में दृष्टि, ज्ञान, योग एवं उपयोग को प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों (15 से 18 तक) में उत्पलजीवों में दृष्टि आदि की प्ररूपणा की गई है। उत्पल-जीव एकान्त मिथ्यावृष्टि और अज्ञानी होते हैं, एकेन्द्रिय होने से उनके मन और वचन नहीं होते, इसलिए काययोग ही होता है। साकारोपयोग और अनाकारोपयोग–५ ज्ञान और 3 प्रज्ञान को साकारोपयोग तथा चार दर्शन को अनाकारोपयोग कहते हैं / ये दोनों सामान्यतया उत्पलजीवों में होते हैं।' १४-१५-१६-वर्णरसादि-उच्छ्वासक-ग्राहारक द्वार 19. तेंसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कतिवण्णा कतिरसा कतिगंधा कतिफासा पन्नत्ता ? * गोयमा ! पंचवण्णा, पंचरसा, दुगंधा, अट्ठफासा पन्नत्ता। ते पुण अप्पणा अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पन्नत्ता। [दारं 14] / 1. भगवती. विवेचन भा, 4, (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1854 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org