________________ छठा शतक : उद्देशक-३ ] [21 योग्य भव्यजीव को / भव्यजीवों के सामूहिक दष्टि से कर्मबन्ध की कोई आदि नहीं है--प्रवाहरूप से उनके कर्मोपचय अनादि हैं, किन्तु एक न एक दिन वे कर्मों का सर्वथा अन्त करके सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करेंगे, इस अपेक्षा से उनका कर्मोपचय सान्त है। अभवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। अभवसिद्धिक कहते हैंअभव्य जीवों को; जिनके कर्मों का कभी अन्त नहीं होगा, ऐसे अभव्य-जीवों के कर्मोपचय की प्रवाहरूप से न तो ग्रादि है, और न अन्त है।' तृतीयद्वार-वस्त्र एवं जीवों को सादि-सान्तता आदि चतुर्भगोप्ररूपरणा 8. वत्थे गं भंते ! कि सादीए सपज्जवसिते ? चतुभंगो। गोयमा ! वत्थे सादीए सपज्जवसिते, अवसेसा तिणि वि पडिसेहेयब्वा / [8 प्र.] भगवन् ! क्या वस्त्र सादि सान्त है ? इत्यादि पूर्वोक्त रूप से चार भंग करके प्रश्न करना चाहिए। [8 उ.] गौतम ! बस्त्र सादि-सान्त है; शेष तीन भंगों का बस्त्र में निषेध करना चाहिए / __E. [1] जहा णं भंते ! वस्थे सादीए सपज्जवसिए० तहा णं जीवा कि सादीया सपज्जवसिया? चतुभंगो, पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिया सादीया सप०, चत्तारि वि भाणियन्वा / [61 प्र.] भगवन् ! जैसे वस्त्र सादि-सान्त है, किन्तु सादि-अनन्त नहीं है, अनादि-सान्त नहीं है और न अनादि-अनन्त है, वैसे जीवों के लिए भी चारों भंगों को ले कर प्रश्न करना चाहिए-अर्थात् (भगवन् ! क्या जीव सादि-सान्त हैं, सादि-अनन्त हैं, अनादि सान्त हैं अथवा अनादि-अनन्त हैं ?) [9-1 उ.] गौतम ! कितने ही जीव सादिसान्त हैं, कितने ही जीव सादि-अनन्त हैं, कई जीव अनादि-सान्त हैं और कितनेक अनादि-अनन्त हैं / (इस प्रकार जीव में चारों ही भंग कहने चाहिए) [2] से केण?णं०? गोयमा ! मेरतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा गतिरागति पडुच्च सादीया सपज्जवसिया। सिद्धा गति पडुच्च सादीया अपजदसिया। भवसिद्धिया लाद्ध पडुच्च अणादीया संपज्जवसिया / प्रभवसिद्धिया संसारं पडुच्च प्रणादोया अपज्जवसिया भवंति / से तेण?णं० / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [1-2 उ.] गौतम ! नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, गति और आगति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं; सिद्धगति की अपेक्षा से सिद्धजीव सादि-अनन्त हैं; लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादि सान्त हैं और संसार की अपेक्षा प्रभवसिद्धिक जीव अनादि-अनन्त हैं। 3. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 255 (ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त), खण्ड 2, पृ. 274 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org