________________ 22] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--वस्त्र एवं जीवों को सादि-सान्तता प्रादि को प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्र की सादि-सान्तता बता कर जीवों की सादि-सान्तता आदि चतुभंगी का प्ररूपण किया गया है / नरकादि गति की सादिसान्तता-नरकादिगति में गमन की अपेक्षा उसकी सादिता है और वहाँ से निकलने रूप आगमन की अपेक्षा उसकी सान्तता है। सिद्धजीवों की सादि-अनन्तता-यों तो सिद्धों का सद्भाव सदा से है। कोई भी काल या समय ऐसा नहीं था और न है, तथा न रहेगा कि जिस समय एक भी सिद्ध न हो, सिद्ध-स्थान सिद्धों से सर्वथा शून्य रहा हो / अतएव सामूहिक रूप से तो सिद्ध अनादि हैं, रोह अनगार के प्रश्न के उत्तर में यही बात बताई गई है। किन्तु एक सिद्ध जीव की अपेक्षा से सिद्धगति में प्रथम प्रवेश के कारण सभी सिद्ध सादि हैं। प्रत्येक सिद्ध ने किसी नियत समय में भवभ्रमण का अन्त करके सिद्धत्व प्राप्त किया है। इस दृष्टि से सिद्धों का सादिपन सिद्ध होता है / इसी तरह प्रत्येक जीव पहले संसारो था, भव का अन्त करने के पश्चात् वह सिद्ध हुआ है, किन्तु सिद्धपर्याय का कभी अन्त न होने के कारण सिद्धों को अनन्त भी कहा जा सकता है / यों सिद्धों की अनन्तता सिद्ध होती है। ___ भवसिद्धिक जीवों की अनादिसान्तता-भवसिद्धिक जीवों के भव्यत्वलब्धि होती है, जो सिद्धत्व प्राप्ति तक रहती है। इसके बाद हट जाती है। इस दृष्टि से भवसिद्धिकों को अनादि-सान्त कहा है / ' चतुर्थद्वार-अष्ट कर्मों को बन्धस्थिति आदि का निरूपरग 10. कति णं भंते ! कम्मपगडीपो पण्णत्तानो ? गोधमा ! अट्ट कम्मप्पगडीप्रो पण्णत्तानो, तं जहा–णाणावरणिज्ज दंसणावरणिज्ज जाव' अंतराइयं / [10 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [10 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ पाठ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय / 11. [1] माणावरणिज्जस्त णं भंते ! कम्मस्स केवलियं कालं बंधठिती पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं तोसं सागरोबमकोडाकोडोप्रो, तिणि य वाससहस्साई प्रबाहा, प्रबाहूणिया कम्मठिती कम्मनिसेश्रो / [11-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को बन्धस्थिति कितने काल की कही गई है ? [11-1 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है / उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है / अबाधाकाल जितनो स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति-~-कर्मनिषेधकाल जानना चाहिए। 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति (ख) भगवती. (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त, खण्ड 2, पृ-२७५ (ग) देखो, भगवती, टीकानुवाद प्रथमखण्ड, शतक 1 उ. 6 में रोह अनगार के प्रश्न / 2. 'जाव' शब्द वेदनीय से अन्तराय तक के कर्मों का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org