________________ पसीसचा मालक : उई शक ) [456 विवेचन-चारित्रद्वार में पुलाकादि का कथन क्यों? -सामायिक से लेकर यथाख्यात तक अपने आप में चारित्र ही है, किन्तु पुलाकादि का कथन चारित्रद्वार में करने का कारण यह है कि पुलाक आदि का परिणाम चारित्ररूप ही है / ' छठा प्रतिसेवनाद्वार : पंचविध संयतों में प्रतिसेवन-अप्रतिसेवनप्ररूपणा 31. [1] सामाइयसंजए णं भंते ! कि पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा? गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा, अपडिसेवए वा होज्जा। [31-1 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी ? 131-1 उ.] गौतम ! बह प्रतिसेवी भी होता है और अप्रतिसेवी भी। [2] जइ पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा ? सैसं जहा पुलागस्स (उ० 6 सु० 35 [2]) / [31-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतिसेवी होता है तो क्या मुलगुणप्रतिसेवी होता है ? इत्यादि प्रश्न / [31-2 उ.] गौतम ! इस विषय में अवशिष्ट समग्र कथन (उ. 6, सु. 35-2 में उक्त) पुलाक ने समान जानना चाहिए / 32. जहा सामाइयसंजए एवं छेदोवढावणिए वि। [32] सामायिकसंयत के समान छेदोपस्थापनिकसंयत का कथन जानना चाहिए / 33. परिहारविसुद्धियसंजए० पुच्छा। गोतमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा। [33 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी ? [33 उ. गौतम ! वह प्रतिसेवी नहीं होता, अप्रतिसेवी होता है। 34. एवं जाव अहक्खायसंजए। [वारं 6] / [34] इसी प्रकार यावत् यथाख्यातसंयत तक कहना चाहिए। [छठा द्वार] विवेचन--सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत प्रतिसेवी भी होते हैं और अप्रतिसेवी भी, किन्तु परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत अप्रतिसेवी ही होते हैं / सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध संयतों में ज्ञान और श्रताध्ययन की प्ररूपणा 35. सामाइयसंजए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा? गोयमा ! दोसु वा, तिसु था, चतुसु वा नाणेसु होज्जा / एवं जहा कसायकुसीलस्स (उ० 6 सु० 44) तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए। 1. भगवती. भ. पत्ति, पत्र 911 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org