________________ 430] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यतनाविशेष करता है / जयणावरणिज्जाणं कम्मापं०--यतनावरणीय कर्म से चारित्रविशेषविषयक वीर्यान्तरायरूप कर्म समझना चाहिए।' केवली आदि से शुद्ध संवर का प्राचरण-अनाचरण--- 7. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा ? गोयमा ! असोच्चा णं केबलिस्स जाव अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं जाव नो संवरेज्जा / [7-1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्म-श्रवण किये बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध संवर द्वारा संवृत होता है ? {7-1 उ.] गौतम ! केवली यावत् केलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत नहीं होता। [2] से केणठेणं जाव नो संवरेज्जा ? गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओबसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवाइ से णं असोच्चा केबलिस्स वा जाव नो संवरेज्जा, से तेणठेणं जाव नो संवरेज्जा। [7-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई जीव केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव यावत् नहीं होता? [7-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने विना ही, यावत् शुद्ध संवर से संवृत हो जाता है, किन्तु जिसने अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, वह जीव केवली आदि से सुने बिना यावत् शुद्ध संवर से संवत नहीं होता / इसी कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि यावत् शुद्ध संवर से संवत नहीं होता / विवेचन-केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा-शुद्ध संवर से संवत होता है, अर्थात्-पाश्रवनिरोध करता है। अज्शवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं---संवर शब्द से यहाँ शुभ अध्यवसायवृत्ति विवक्षित है। वह भावचारित्र रूप होने से तदावरणक्षयोपशम-लभ्य है, इसलिए अध्यवसानावरणीय शब्द से यहाँ भावचारित्रावरणीय कर्म समझने चाहिए / केवली प्रादि से प्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान-उपार्जन-अनुपार्जन 8. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं आभिणि. बोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा / -. - ----- -- - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 433 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 433 -..-.-. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org