________________ नवम शतक : उद्देशक-३१ / [ 437 [5.2. प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् कोई जीव धारण नहीं कर पाला? |5-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण कर लेता है किन्तु जिस जीव ने चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया है, वह जीव यावत् शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण नहीं कर पाता / इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् वह धारण नहीं कर पाता / विवेचन-चारित्रावरणीय कर्म--यहाँ वेद नोकषायमोहनीयरूप चारित्रावरणीयकर्म विशेष रूप से ग्रहण करने चाहिए ; क्योंकि मैथुनविरमण रूप ब्रह्मचर्यवास के विशेषतः आवारक कर्म वे ही हैं।' केवली आदि से शुद्ध संयम का ग्रहण-अग्रहण 6. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स जाब उवासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा। {6.1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है ? [6-1 उ.) हे गौतम ! केवली यावत् केवल-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयम---यतना करता है और कोई जीव नहीं करता। [2] से केण ठेणं जाव नो संजमेज्जा? गोयमा ! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से पं असोच्चा केवलिस्स वा जाव नो संजमेज्जा, से तेणछैणं गोयमा ! जाव अत्थेगतिए नो संजमेज्जा। [6.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयम--- यतना करता है और कोई जीव नहीं करता? 6.2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, वह केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने बिना ही शुद्ध संयम द्वारा संयम--यतना करता है, किन्तु जिसने यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया है, वह केवली आदि से सुने बिना यावत् शुद्ध सयम द्वारा सयम-यतना नहीं करता। इसीलिए हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है। विवेचन केवलेण संजमेणं संजमेज्जा-शुद्ध संयम अर्थात्-चारित्र ग्रहण अथवा पालन करके संयम---यतना करता है-अर्थात् संयम में लगने वाले अतिचार का परिहार करने के लिए 1. भगवती. अ. वृत्ति , पत्र 433 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org