________________ 198] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 18. अयं णं भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठारसुत्तरेसु गेवेज्जविमाणावाससएसु० एवं चेव / [18 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव तीन सौ अठारह वेयक विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उत्पन्न हो चुका है ? [18 उ.] हाँ गौतम ! (वह अनेक बार या अनन्तबार) पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है / 19. [1] अयं णं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणसि पुढवि० तहेव जाव अणतखुत्तो, नो चेव णं देवत्ताए वा, देवित्ताए वा / [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव पांच अनुत्तरविमानों में से प्रत्येक अनुतर विमान में, पृथ्वीकायिक रूप में यावत् उत्पन्न हो चुका है ? हाँ, किन्तु वहाँ (अनन्त बार) देवरूप में, वा देवीरूप में उत्पन्न नहीं हुआ। [2] एवं सत्यजीवा वि। [19-2] इसी प्रकार सभी जीवों के (पूर्वोक्त रूप में उत्पत्ति के) विषय में जानना चाहिए / विवेचन--रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर अनुत्तर विमान के आवासों में जीव को उत्पत्ति की प्ररूपणा प्रस्तुत 15 सूत्रों ( सू. 5 से 16 तक) में एक जीव एवं सर्वजीवों की अपेक्षा से रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों से लेकर अनुत्तरविमान के विमानावासों तक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समग्र रूपों में उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है। 'नरगत्ताए' आदि शब्दों का भावार्थ-नरगत्ताए-नरकावास में पृथ्वी कायिक रूप में / असई--छानेक वार / अणंतखुत्तो-अनन्तवार। असंखेज्जेसु पुढविकाइयावास-सयसहस्सेसुअसंख्यात लाख पृथ्वीकायिकावासों में / पृथ्वीकायिकावास असंख्यात हैं, किन्तु उनकी बहुलता बतलाने के लिए शतसहस्र (लाख) शब्द प्रयुक्त किया गया है / 'नो चेव णं देविताए'--ईशान देवलोक तक ही देवियाँ उत्पन्न होती हैं, सनत्कुमार आदि देवलोकों में नहीं, इस दृष्टि से कहा गया है कि सनत्कुमार आदि देवलोकों में. देवी रूप में उत्पन्न नहीं होता। ___'नो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए वा'-अनुत्तरविमानों में कोई भी जीव देवरूप से अनन्त वार उत्पन्न नहीं होता, और देवियों की उत्पत्ति तो वहाँ सर्वथा है ही नहीं, इसलिए कहा गया है कि अनुत्तर विमानों में न तो अनन्त बार देवरूप में कोई जीव उत्पन्न होता है और न देवीरूप में / ' एक जीव या सर्वजीवों के, माता आदि के शत्र प्रादि के, राजादि के तथा दासादि के रूप में अनन्तशः उत्पन्न होने की प्ररूपणा 20 [1] अयं णं भंते ! जीवे सब्यजीवाणं माइत्ताए पितित्ताए भाइत्ताए भागणिताए भज्जत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए सुण्हत्ताए उववन्नपुटवे ? हता, गोयमा ! असई अदुवा भणंतखुत्तो। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 581 (ख) भगवती. (हिन्दीक्वेिचन) भा.४, पत्र 2079 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org