________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [197 [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव असंख्यात लाख द्वीन्द्रिय-ग्रावासों में से प्रत्येक द्वीन्द्रियावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में और द्वीन्द्रियरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [13-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह पूर्वोक्तरूप में) यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [2] सन्वनीवा वि पं० एवं चेव / [13-2] इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में (कहना चाहिए / ) 14. एवं जाव मणुस्सेसु / नवरं तेंदिएसु जाव वणस्ततिकाइयत्ताए तेंदियत्ताए, चरिदिएसु चरिदियत्ताए, पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिदियतिरिक्खजोणियत्ताए, मणुस्सेसु भणुस्सत्ताए० सेसं जहा बंदियाणं। [14] इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय से लेकर) यावत् मनुष्यों तक (अपने-अपने आवासों में उत्पन्न होने के विषय में कहना चाहिए।) विशेषता यह है कि श्रीन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, यावत् त्रीन्द्रियरूप में, चतुरिन्द्रियों में यावत् चतुरिन्द्रियरूप में, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चरूप में तथा मनुष्यों में यावत् मनुष्यरूप में उत्पत्ति जाननी चाहिए / शेष समस्त कथन द्वीन्द्रियों के समान जानना चाहिए। 15. वाणमंतर-जोतिसिय-सोहम्मोसाणेसु य जहा असुरकुमाराणं / [15] जिस प्रकार असुरकुमारों (की उत्पत्ति) के विषय में कहा है; उसी प्रकार वाणव्यन्तर; ज्योतिष्क तथा सौधर्म एवं ईशान देवलोक तक कहना चाहिए। 16. [1] अयं णं भंते ! जीवे सणंकुमारे कप्पे बारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि घुढविकाइयत्ताए सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो। नो चेव णं देवित्ताए / [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव सनत्कुमार देवलोक के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ? | 16-1 उ.] (हाँ, गौतम! इस सम्बन्ध में) सब कथन असुरकुमारों के समान, यावत् . अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं; यहाँ तक कहना चाहिए / किन्तु वहाँ वे देवीरूप में उत्पन्न नहीं हुए। [2] एवं सव्वजीवा वि / [16-2] (जैसे एक जीव के विषय में कहा,) इसी प्रकार सर्व जीवों के विषय में कहना चाहिए। 17. एवं जाव प्राणय-पाणएसु / एवं आरणच्चुएसु वि / [17] इसी प्रकार यावत् आनत और प्राणत तक जानना चाहिए / पारण और प्रच्युत तक भी इसी प्रकार जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org