________________ 196] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कुमारावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्ततिकाइयताए देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयणभंडमत्तोबगरणत्ताए उववन्नपुग्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। 6-1 प्र. भगवन् ! क्या यह जीब, असुरकुमारों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, देवरूप में या देवीरूप में अथवा प्रासन, शयन, भांड, पात्र प्रादि उपकरणरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [6-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह पूर्वोक्तरूप में) अनेक बार या अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [2] सधजीवा वि णं भंते ! 0 एवं चेव / [6-2 प्र.) भगवन् ! क्या सभी जीव (पूर्वोक्तरूप में उत्पन्न हो चुके हैं ?) 16-2 उ.] हाँ, गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए।) 10. एवं जाव थणियकुमारेसु नाणतं आवासेसु आवासा पुटवभणिया / [10] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए / किन्तु उनके ग्रावासों की संख्या में अन्तर है / अावाससंख्या (भगवतो. श. 1 उ. 5, सू. 1-5 में) पहले बताई जा चुकी है। 11. [1] अयं णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सतिकाइयत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। 611-1 प्र.] भंते ! क्या यह जीव असंख्यात लाख पृथ्वीकायिक-प्रावासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक-ग्रावास में पृथ्वी कायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [11-1 उ ] हाँ, गौतम ! (वह उक्तरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है। [2] एवं सब्वजीवा वि। [11-2] इसी प्रकार (का पालापक) सर्वजीवों के (विषय में कहना चाहिए / ) 12. एवं जाव वणस्सतिकाइएसु / [12] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों के आवासों के (विषय में भी पूर्वोक्त कथन करना चाहिए।) 13. [1] अयं णं भंते ! जोवे असंखेज्जेसु बेंदियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि बेंदियावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सतिकाइयत्ताए बॅदियत्ताए उववन्नपुरावे ? हंता, गोयमा ! जाव खुत्तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org