________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [195 प्रत्येक नरकावास में पृथ्वीकायिक रूप से यावत् वनस्पतिकायिक रूप से, नरक रूप में (नरकावासरूप पृथ्वीकायिकतया), पहले उत्पन्न हुअा है ? [5.1 उ.] हाँ, गौतम ! (यह जीव पहले पूर्वोक्तरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [2] सव्वजीवा वि णं मंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरया० तं चेव जाव प्रणंतखुत्तो। [5-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकाबास में पृथ्वी कायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, नरकपने और नै रयिकपने, पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? . [5-2 उ.] (हाँ, गौतम ! ) उसी प्रकार (पूर्ववत्) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं। 6. अयं णं भंते ! जोवे सक्करप्पभाए पुढवीए पणवीसाए. एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो पालावगा भाणियच्या / एवं धूमप्पभाए। [6 प्र.] भगवन् ! यह जीव शर्कराप्रभापथ्वी के पच्चीस लाख (नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में, पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में, यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ?) [6 उ.] गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभापथ्वी-(विषयक) दो पालापक कहे हैं, उसी प्रकार (शर्कराप्रभापृथ्वी के विषय में) दो पालापक कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत् धूमप्रभापृथ्वी तक (के आलापक कहने चाहिए।) 7. अयं गं भंते ! जोवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगंसि० सेसं तं चेव। [7 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव तमःप्रभापृथ्वी के पांच कम एक लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है ? / [7 उ.] (हाँ, गौतम ! ) पूर्ववत् ही शेष सर्व कथन करना चाहिए। 8. अयं णं भंते ! जीवे अहेस तमाए पुढवीए पंचसु मणत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएसु एगमेगसि निरयावासंसि० सेसं जहा रयणप्पभाए। [8 प्र.] भगवन् ! यह जीव अध सप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर और महातिमहान् महानरकावासों में क्या पूर्ववत् उत्पन्न हो चुके हैं ? [8 उ.] (हाँ, गौतम ! ) शेष सर्वकथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान समझना चाहिए / 9. [1] अयं णं भंते ! जीवे चोयट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगसि असुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org