________________ 194} [माख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नित्य है। जीव नित्य होने पर भी यदि कर्म अल्प हों तो भो तथाविध संसारपरिभ्रमण नहीं हो सकता, और वैसी स्थिति में उपर्युक्त कथन घटित नहीं हो सकता, इसलिए कहा गया—(४) को की बहुलता है। कर्मों की बहुलता होने पर भी यदि जन्म-मरण की अल्पता हो तो पूर्वोक्त प्रर्थ घटिन नहीं हो सकता, इसलिए बतलाया गया-(५) जन्म-मरण की बहुलता है / इन पांच कारणों से लोक में एक परमाणुमात्र भी प्राकाश-प्रदेश ऐसा नहीं है, जहाँ जीव न जन्मा हो, और न मरा हो / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-अयावयं-अजाब्रज-बकरियों का बाड़ा / यहाँ सौ बकरियों के रहने योग्य बाड़े में हजार बकरियों को रखने का कथन किया है, वह उनके अत्यन्त सट कर ठसाठस भर कर रखने की दृष्टि से है। पउरगोयराओ-जहाँ घासचारा धरने की प्रचुर भूमि हो। पउरपाणीयामो-जहाँ प्रचुर पानी हो। इन दोनों पदों से उन बकरियों के प्रचुर मलमूत्र की संभावना, एवं क्षुधा-पिपासानिकारण के कारण चिरंजीविता सूचित की गई है। चौवीसदण्डकों की आवास संख्या का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण 4. कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नाताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीनो पन्नत्ताओ, जहा पढमसए पंचमउद्देसर (स० 1 उ० 5 सु० 1-5) तहेव आवासा ठावेयम्वा जाक अणुत्तरविमाणे ति जाव अपराजिए सव्वट्ठसिद्ध / [4 प्र.] भगवन् ! पृथ्वियाँ (नरक-भूमियाँ) कितनी कही गई हैं ? 14 उ.] गौतम ! पृथ्वियाँ सात कही गई हैं। जिस प्रकार प्रथम शतक के पञ्चम उद्देशक (सूत्र 1-5) में कहा गया है, उसी प्रकार (यहाँ भो) नरकादि के आवासों का कथन करना चाहिए। यावत् अनुत्तर-विमान तक, (अर्थात-) यावत् अपराजित और सर्वार्थसिद्ध तक इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (सं. 4) में मात नरकों के आवासों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के विमानावासों तक का प्रथमशतक के पंचम उद्देशक के वर्णन के अनुसार अतिदेशपूर्वक निरूपण है। एकजीव या सर्वजीवों के चौवीस दण्डकवर्ती प्रावासों में विविधरूपों में अनन्तशः उत्पन्न होने को प्ररूपणा 5. [1] अयं णं भंते ! जीवे इमोसे रतणप्पमाए पुढवीए तोसाए निरयावाससयसहस्सेसु एममेगंसि निरयावासंसि पुढ विकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए नरगत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुख्ने ? हंता, गोतमा ! असति प्रदुवा अर्णतखुतो। [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से 1. (क) भगवती० अ. वृत्ति, पत्र 580 (ख) भगवती० (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2073 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 580 3. देखिये, व्याख्याप्रज्ञप्तिमूत्र (आगमप्रकाशनममिति) प्रथमखण्ड, पृ. 90-91 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org