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________________ 476] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के उद्यान में हुआ / उसमें मैं रोहक के शरीर का परित्याग करके भारद्वाज के शरीर में प्रविष्ट हुना। भारद्वाज-शरीर में प्रविष्ट होकर अठारह वर्ष तक पाँचवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। __उनमें से जो छठा परिवृत्त-परिहार हुअा, उसमें मैंने वैशाली नगर के बाहर कुण्डियायन नामक उद्यान में भारद्वाज के शरीर का परित्याग किया और गौतमपुत्र अर्जनक के शरीर में प्रवेश किया। अर्जुनक-शरीर में प्रविष्ट होकर मैंने सत्रह वर्ष तक छठे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया / उनमें से जो सातवाँ परिवत्त-परिहार हुआ, उसमें मैंने इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भकारी की बर्तनों की दूकान में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर का परित्याग किया / अर्जुनक के शरीर का परित्याग करके मैंने समर्थ, स्थिर, ध्र व, धारण करने योग्य, शीतसहिष्णु, उष्णसहिष्ण, क्षुधासहिष्णु, विविध दंश-मशकादिपरीषह-उपसर्ग-सहनशील, एवं स्थिर संहनन वाला जानकर, मंलिपुत्र गोशालक के उस शरीर में प्रवेश किया / उसमें प्रवेश करके मैं सोलह वर्ष तक इस सातवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग करता हूँ। इसी प्रकार हे यायुष्मन् काश्यप ! इन एक-सौ तेतीस वर्षों में मेरे ये सात परिवत्तपरिहार हुए हैं. ऐसा मैंने कहा था। इसलिए आयुष्मन् काश्यप ! तुम ठीक कहते हो कि मंलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, यह तुमने ठीक ही कहा है अायुष्मन् काश्यप ! कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्म-शिष्य है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (68) में गोशालक ने भगवान् महावीर के समक्ष अपने स्वरूप को छिपाने और भगवान् को झुठलाने हेतु अपनी परिवृत्तपरिहार की मिथ्या मान्यतानुसार अपने सात परिवृत्तपरिहार (शरीरान्तर प्रवेश) की प्ररूपणा की है / गोशालक के विस्तृत भाषण का प्राशय-भगवान् द्वारा गोशालक की कलई खुल जाने से वह उन पर क्रुद्ध होकर पाया और उपालम्भपूर्वक व्यंग करते हुए कहने लगा-आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मुझे अपना धर्म शिष्य बताया परन्तु तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वह जो तुम्हारा धर्मशिष्य गोशालक था, वह तो शुभभावों से मरकर कभी का देवलोक में उत्पन्न हो चुका है / मैं तुम्हारा धर्मान्ते वासी नहीं हूँ। मैं तो कौण्डिन्यायनगोत्रीय उदायी हूँ। गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग करके मैं मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हुअा हूँ। यह मेरा सातवाँ परिवृत्तपरिहार है / इस प्रकार उसने उपर्युक्त बात कहकर अपने स्वरूप को छिपाया और फिर अपने मनःकल्पित सिद्धान्तानुसार मोक्ष जाने वालों का क्रम बतलाया है। इसी सन्दर्भ में उसने स्वसिद्धान्तानुसार महाकल्प, संयूथ, शर-प्रमाण, मानस-शर-प्रमाण, उद्धार आदि का वर्णन किया है। फिर अपने सात प्रवृत्त परिहारों के नामपूर्वक विस्तृत वर्णन किया है।' गोशालक-सिद्धान्त : अस्पष्ट एवं संदिग्ध-वृत्तिकार का अभिप्राय है कि यह सिद्धान्त पूर्वापर विरुद्ध, असंगत एवं अस्पष्ट है, इसलिए इसकी अर्थसंगति हो ही कैसे सकती है ? 2 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2 (मू. पा. टिप्पणयुक्त) पृ. 711 से 715 तक 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 676 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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