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________________ 'पन्द्रहवां शतक [475 उत्पन्न होता है। वहां से मर कर तुरन्त अधस्तन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ-देव में उत्पन्न होता है। वह वहां दिव्य भोगा का उपभोग करके यावत् च्यव कर छठे संजीम जीब में जन्म लेता है। वह वहाँ से मर कर तुरन्त ब्रह्मलोक नामक कल्प (देवलोक) में देवरूप में उत्पन्न होता है, (जिसका वर्णन इस प्रकार कहा गया है-) वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा (विस्तीर्ण) है 1 प्रज्ञापना मूत्र के दूसरे स्थानपद के अनुसार वर्णन समझना चाहिए, यावत्-उस में पांच अवतंसक विमान कहे गए हैं / यथा--अशोकावतंसक, यावत् वे प्रतिरूप हैं। इन्हीं अवतंसकों में वह देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दम सागरोपम तक दिव्य भोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से ध्यव कर सातवे संजोगर्भ जीव में उत्पन्न होता है। वहाँ नौ मास और साढ़े सात रात्रि दिवस यावत् व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु तथा (दर्भादि के) कुण्डल के समान कुंचित (घंघराले) केश वाला, कान के प्राभूषणों से जिसके कपोलस्थल चमक रहे थे, ऐसे देवकुमारसम कान्ति बाले बालक को जन्म दिया / हे काश्यप ! वही (बालक) इसके पश्चात् हे आयुष्मन् काश्यप ! कुमारावस्था में ली हुई प्रव्रज्या से, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्य वास से जब मैं अविद्धकर्ण (अव्युत्पन्नमति) था, तभो मुझे प्रवज्या ग्रहण करने की बुद्धि (संख्यान) प्राप्त हुई। फिर मैंने सात परिवृत्त-परिहार(शरीरान्तरप्रवेश) में संचार किया / यथा-- (1) ऐणेयक, (2) मल्लरामक, (3) मण्डिक, (4) रोह, (5) भारद्वाज, (6) गौतमपुत्र अर्जुनक और (7) मंलिपुत्र गोशालक के (शरीर में प्रवेश किया।) इनमें से जो प्रथम परिवृत्त-परिहार (शरीरान्तर-प्रवेश) हुना, वह राजगृह नगर के बाहर मंडिक कक्षि नामक उद्यान में, कुण्डियायण गोत्रीय उदायी के शरीर का त्याग करके ऐणयक के शरीर में प्रवेश किया / ऐणेयक के शरीर में प्रवेश करके मैंने बाईस वर्ष तक प्रथम परिवृत्त-परिहार (शरीरान्तर में परिवर्तन) किया / इन में से जो द्वितीय परिवृत्त-परिहार हुमा, वह उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण नामक उद्यान में मैंने ऐणेयक के शरीर का त्याग किया और मल्लरामक के शरीर में प्रवेश किया / मल्लरामक के शरीर में प्रवेश करके मैंने इक्कोस वर्ष तक दूसरे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया / इनमें से जो ततीय परिवत्त-परिहार हुआ, वह चम्पानगरी के बाहर अंगमंदिर नामक उद्यान में मल्ल रामक के शरीर का परित्याग किया / मल्लरामक-शरीर त्याग करके मैंने मण्डिक के शरीर में प्रवेश किया। मण्डिक के शरीर में प्रविष्ट हो कर मैंने बीस वर्ष तक तृतीय परिवत्त-परिहार का उपभोग किया / इनमें से जो चतुर्थ परिवृत्त-परिहार हुअा, वह वाराणसी नगरी के बाहर काम-महावन नामक उद्यान में मण्डिक के शरीर का मैंने त्याग किया और रोहक के शरीर में प्रवेश किया / रोहक-शरीर में प्रविष्ट होकर मैंने उन्नीस वर्ष तक चतुर्थ परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। उनमें से जो पंचम परिवृत्त-परिहार हुमा, वह पालभिका नारी के बाहर प्राप्तकालक नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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