SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1739
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 474] [व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र अर्जुन के शरीर का त्याग किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया। मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश करके मैंने यह सातवाँ परिवृत्त परिहार किया है / हे प्रायुष्मन काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो भी सिद्ध हए हैं, सिद्ध होते हैं अथवा सिद्ध होंगे, वे सब (पहले) चौरासी लाख महाकल्प, (कालविशेष), सात दिव्य (देवभव), सात संयूथनिकाय, सात संशीगर्भ (मनुष्य-गर्भावास) सात परिवृत्त-परिहार (उसी शरीर में पुनः पुनः प्रवेशउत्पत्ति) और पांच लाख, साठ हजार छह-सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में ऐसा करेंगे। जिस प्रकार गंगा महानदी जहाँ से निकलती है, और जहाँ (जा कर) समाप्त होती है। उसका वह मार्ग (अद्धा) लम्बाई में 500 योजन है और चौड़ाई में प्राधा योजन है तथा गहराई में पाँच-सौ धनुष है / उस गंगा के प्रमाण वाली सात गंगाएँ मिल कर एक महागंगा होती है / सात महागंगाएँ मिलकर एक सादीनगंगा होती है। सात सादीनगंगाएँ मिल कर एक मृतगंगा होती है / सात मू मिलकर एक लोहितगंगा होती है। सात लोहितगंगाएँ मिल कर एक अवन्तीगंगा होती है / सात अवन्तीगंगाएँ मिल कर एक परमावतीगंगा होती है। इस प्रकार पूर्वापर मिल कर कुल एक लाख, सत्रह हजार, छह सौ उनचास गंगा नदियाँ होती हैं, ऐसा कहा गया है। उन (गंगानदियों के बालुकाकण) का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है / यथा-(१) सूक्ष्मबोन्दि-कलेवररूप और (2) बादर-बोन्दि-कलेवररूप / उनमें से जो सुक्ष्मबोदि-कलेवररूप उद्धार है, वह स्थाप्य है (निरुपयोगी है, अतएव उसका विचार करने की आवश्यकता नहीं है) / उनमें से जो बादर-बोंदिकलेवररूप उद्धार है, उसमें से सौ-सौ वर्षों में गंगा की बाल का एक-एक-कण निकाला जाए और जितने काल में वह गंगा-समूहरूप कोठा समाप्त हो जाए, रजरहित निर्लेप और निष्ठित (समाप्त) हो जाए, तब एक 'शरप्रमाण' काल कहलाता है। इस प्रकार के तीन लाख शर. प्रमाण काल द्वारा एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है। अनन्त संयूथ (अनन्त जीवों के समुदाय रूप निकाय) से जीव च्यव कर संयूथ-देवभव में उपरितन मानस (शरप्रमाण आयुष्य) द्वारा उत्पन्न होता है। वह वहाँ (देवभव में) दिव्यभोगों का उपभोग करता रहता है। इस प्रकार दिव्यभोगों का उपभोग करते-करते उस देवलोक का आयूप्य-क्षय, देवभव का क्षय और देवस्थिति का क्षय होने पर तुरन्त (बिना अन्तर के) च्यवकर प्रथम संजीगर्भजीव (गर्भज. पंचेन्द्रिय मनुष्य) में उत्पन्न होता है। फिर वह वहाँ से अन्तररहित (तुरन्त) मर कर मध्यम मानस (शरप्रमाण आयुष्य) द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करता है / वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर दूसरी बार फिर संज्ञीगर्भ (गर्भज मनुष्य) में जन्म लेता है। इसके पश्चात् वहाँ से तुरन्त मर कर अधस्तन मानस (शरप्रमाण) आयुष्य द्वारा संयूथ (देवनिकाय) में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर तीसरे संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है। फिर वह वहां से मर कर उपरितन मानसोत्तर (महामानस) आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है। वहाँ वह दिव्य भोग भोग कर यावत् चतुर्थ संजीगर्भ में जन्म लेता है। वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है। वहाँ वह दिव्यभोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर पांचवें संज्ञीगर्भ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy