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________________ पन्द्रहवां शतक] [477 कठिन शब्दों के विशेषार्थ-सुक्के-शुक्ल-पवित्र / सुक्काभिजाइए-शुक्ल परिणाम वाला। पउट्ट-परिहार-एक शरीर छोड़कर दूसरे को धारण करना / ठप्पे-स्थाप्य-अव्याख्येय / प्रवहायछोड़कर / कोठे-गंगासमुदायात्मक कोष्ठ / निल्लेवे पूरी तरह साफ-खाली रजकण के लेप का भी अभाव / निट्टिए-निष्ठित-अवयवरहित किया हुया / अलंथिरं-अत्यन्त स्थिर | अविद्धकन्नएजिसके कान कुश्रुतिरूपी शलाका से बींधे हुए नहीं हैं अर्थात् जो अभी तक निर्दोषबुद्धि है अव्युत्पन्नमति है। कोरी स्लेट के समान साफ है।' भगवान द्वारा गोशालक को चोर के दृष्टान्तपूर्वक स्व-भ्रान्तिनिवारण-निर्देश 69. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मखलिपुत्तं एवं वदासि---गोसाला! से जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहि परम्भमाणे परममाणे कथयि गड्डुवा दरि वा दुग्गं वा पिण्णं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपोम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं पावरेत्ताणं चिट्ठज्जा, से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मन्नति, अप्पच्छन्न पच्छन्नमिति अप्पाणं मन्नति, अणिलुवके णिलुषकमिति अप्पाणं मन्नति, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मन्नति, एवामेव तुमं पि गोसाला! अणन्ने संते अन्नमिति अप्पाणं उपलभसि, तं मा एवं गोसाला !, नारिहसि गोसाला! , सच्चेव, ते सा छाया, नो अन्ना। [69] (गोशालक के उपर्युक्त कथन पर) श्रमण भगवान महावीर ने मंखलिपुत्र गोशालक से यों कहा-गोशालक ! जैसे कोई चोर हो और वह ग्रामवासी लोगों के द्वारा पराभव पाता हुआ (खदेड़ा जाता हुआ) कहीं गड्ढा, गुफा, दुर्ग (दुर्गम स्थान), निम्न स्थान, पहाड़ या विषम (बीहड़ प्रादि स्थान) नहीं पा कर अपने आपको एक बड़े ऊन के रोम, (कम्बल) से, सण के (वस्त्र) रोम से, कपास के बने हुए रोम (वस्त्र) से, तिनकों के अग्रभाग से आवृत (ढंक) करके बैठ जाए, और नहीं ढंका हा भी स्वयं को ढंका हुया माने, अप्रच्छन्न (नहीं छिपा) होते हुए भी अपने आपको प्रच्छन्न (छिपा हुआ) माने, लुप्त (अदृश्य) (लुका हुआ) न होने पर भी अपने को लुप्त (अदृश्य-लुका हुआ) माने, पलायित (भागा हुआ) न होते हुए भी अपने को पलायित माने। उसी प्रकार हे गोशालक ! तू अन्य (दूसरा) न होते हुए भी अपने आपको अन्य (दूसरा) बता रहा है। अतः गोशालक ! ऐसा मत कर / गोशालक ! (ऐसा करना) तेरे लिए उचित नहीं है। तू वही है। तेरी वही छाया (प्रकृति) है, तू अन्य (दूसरा) नहीं है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र (66) में भगवान् द्वारा गोशालक को चोर के उदाहरण पूर्वक दिये गए वास्तविक बोध का निरूपण है। कठिनशब्दार्थ तेणए-स्तेन, चोर / गामेल्लएहि-ग्रामीणों द्वारा / गड्डे-गड्ढा--गर्त / दरि-शृगाल आदि के द्वारा बनाई हई घरी या छोटी गूफा / णिणं-शुष्क सरोवर आदि निम्न स्थान / अणासादेमाणे-प्राप्त न होने पर / कप्पासपोम्हेण-कपास के रोगों (वस्त्र) से / तणसूएण-तिनकों के अग्नभाग से / अत्ताणं आवरेत्ता-अपने आपको ढंक कर / अप्पछन्ने-अप्रच्छन्न / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 677 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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