________________ नवम शतक : उद्देशक-३३) [517 जैसा कहा है, वसा ही है, भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है / इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त ने (सू.१६ में) प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए निवेदन किया था, वैसे ही विरक्त देवानन्दा ने भी निवेदन किया; यावत्-धर्म कहा'; यहाँ तक कहना चाहिए। 18. तए गं समणे भगवं महावीरे देवाणंदं माणि सयमेव पवावेति, सयमेव मुंडावेति, सयमेव अज्जचंदणाए अज्जाए सोसिणित्ताए दलयइ / [18] तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने देवानन्दा ब्राह्मणी को स्वयमेव प्रजित कराया, स्वयमेव मुण्डित कराया और स्वयमेव आर्यचन्दना आर्या को शिष्यारूप में सौंप दिया। 19 तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा देवाणंदं माहणि सयमेव पवावेति, सयमेव मुडावेति, सयमेव सेहावेति, एवं जहेब उसमदत्तो तहेव अज्जचंदणाए अज्जाए इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्म संयडिवज्जइ-तमाणाए तहा गच्छइ जाव संजमेणं संजमति / [16] तत्पश्चात् आर्य चन्दना प्रार्या ने देवानन्दा ब्राह्मणी को स्वयं प्रबजित किया, स्वयं मेव मुण्डित किया और स्वयमेव उसे (संयम की) शिक्षा दी / देवानन्दा (नवदीक्षित साध्वी) ने भी ऋषभदत्त के समान इस प्रकार के धार्मिक (श्रमणधर्मपालन सम्बन्धी) उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और वह उनकी (आर्या चन्दनबाला की) आज्ञानुसार चलने लगी, यावत् संयम (-पालन) में सम्यक् प्रवृत्ति करने लगी। 20. तए णं सा देवाणंदा अज्जा अज्जचंदणाए अज्जाए अंतियं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / सेसं तं चेव जाव सव्वदुक्खप्पहीणा / [20] तदनन्तर अार्या देवानन्दा ने आर्य चन्दना प्रार्या से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / शेष सभी वर्णन पूर्ववत् है; यावत् वह देवानन्द प्रार्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त और समस्त दुःखों से रहित हुई। विवेचन देवानन्दाः प्रवजित और मुक्त--ऋषभदत्त ब्राह्मण की तरह देवानन्दा को भी संसार से विरक्ति हुई, उसने भी भगवान् के समक्ष अपनी दीक्षाग्रहण की इच्छा व्यक्त की / योग्य समझ कर भगवान् ने उसे दीक्षा दी / साध्वी चन्दनबाला को शिष्या के रूप में सौंपी / आर्या चन्दना ने उसे शिक्षित किया, शास्त्राध्ययन कराया। देवानन्दा ने भी विविध तप किए और अन्त में संल्लेखना-संथारापूर्वक-समाधिपूर्वक शरीर त्याग किया और मुक्ति प्राप्त की। इस पाठ से श्रमण-संस्कृति का संयम एवं तप द्वारा कर्मक्षय करके मुक्त होने का सिद्धान्त स्पष्ट अभिव्यक्त होता है / वैदिक-संस्कृति-निरूपित, संयम में पुरुषार्थ किये बिना ही भगवान् द्वारा स्वर्गमोक्ष प्रदान कर देने का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है / (सू. 18 में) भगवान् महावीर द्वारा देवानन्दा को प्रजित-मुण्डित करने के उपरान्त पुनः (सू. 16 में) आर्या चन्दना द्वारा प्रवजित-मुण्डित करने का उल्लेख स्पष्ट करता है कि भ. महावीर ने स्वयं प्रजित-मुण्डित नहीं करके प्रार्या चन्दना से प्रजितमुण्डित कराया और उसे शिष्या के रूप में सौंपा / आर्या चन्दना ने भगवदाज्ञा से उसे प्रवजित-मुण्डित किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org