________________ 518} व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जमालि-चरित जमालि और उसका भोग-वैभवमय जीवन 21. तस्स णं माहणकुडग्गामस्स नगरस्स पच्चस्थिमेणं, एत्थ पं खत्तियकुंडग्गामे नामं नगरे होत्था / वष्णओ। [21] उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर से पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था। उसका यहाँ वर्णन समझ लेना चाहिए / 22. तत्थ ण खत्तियकुडग्गामे नयरे जमाली नाम खत्तियकुमारे परिवसति, अड्ढे दित्ते जाव अपरिभूए उपि पासायवरगए फुट्टमाहि मुइंगमत्थरहिं बत्तीसतिबद्धहि नाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उबनच्चिज्जमाणे उवनच्चिज्जमाणे उवगिज्जमाणे उगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे पाउस-वासारत्त-सरद-हेमंत-वसंत-गिम्हपज्जते छप्पि उऊ जहाविभवेणं माणेमाणे माणेमाणे कालं गालेमाणे इवें सद्द-फरिस-रस-रूब-गधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरइ / 22] उस क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में जमालि नाम का क्षत्रियकुमार रहता था। वह आढ्य (धनिक), दीप्त (तेजस्वी) यावत् अपरिभूत था / वह जिसमें मृदंग वाद्य की स्पष्ट ध्वनि हो रही थी, बत्तीस प्रकार के नाटकों के अभिनय और नत्य हो रहे थे, अनेक प्रकार तरुणियों द्वारा सम्प्रयुक्त नृत्य और गुणगान (गायन) बार-बार किये जा रहे थे, उसकी प्रशंसा से भवन गंजाया जा रहा था, खशियां मनाई जा रही थी. ऐसे अपने उच्च श्रेष्ठ प्रासाद-भवन में प्रावट (पावस), वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म, इन छह ऋतुओं में अपने वैभव के अनसार आनन्द (उत्सव) मनाता हुआ, समय बिताता हुआ, मनुष्यसम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वाले कामभोगों का अनुभव करता हुअा रहता था। विवेचन-जमालि और उसका भोगमय जीवन—प्रस्तुत दो सूत्रों में जमालि कौन था, किस नगर का था, उसके पास वैभव और भोगसुखों का अम्बार किस प्रकार का लगा हुअा था, यह वर्णन किया गया है / 'जमालि' भगवान् महावीर का जामाता था, ऐसा उल्लेख तथा जमालि के म के नाम का उल्लेख मूल में या वृत्ति में कहीं भी नहीं किया गया है।' कठिन शब्दों के अर्थ--पच्चस्थिमेणं = पश्चिम दिशा में, उपि पासायवरगए = ऊपर के या उन्नत (उच्च) श्रेष्ठ प्रासाद में रहता हुआ / फुट्टमाणेहि मुइंगमत्थरहि - मृदंग के मस्तक (सिर) पर अत्यन्त शीघ्रता से पीटने से स्पष्ट आवाज कर रहे थे / उवनचिज्जमाणे - नृत्य किये जा रहे थे / उवगिज्जमाणे = गीत गाए जा रहे थे / उवलालिज्जमाणे - प्रशंसा से फुलाया (लड़ाया) जा 1. वियाह रणत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1 पृ 45.5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org