________________ 516] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कह कर (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक, सू. 34 में) जिस प्रकार स्कन्दक तापस की प्रवज्या का प्रकरण है, तदनुसार (ऋषभदत्त ब्राह्मण ने) प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत बहत-से उपवास (चतुर्थभक्त), बेला (षष्ठभक्त), तेला (अष्टमभक्त). चौला (दशमभक्त) इत्यादि विचित्र तप:कर्मों से प्रात्मा को भावित करते हुए, बहत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (श्रमण-दीक्षा) का पालन किया और (अन्त में) एक मास की संल्लेखना से प्रात्मा को संलिखित करके साठ भक्तों का अनशन से छेदन किया और ऐसा करके जिस उद्देश्य से नग्नभाव (निर्ग्रन्थत्वसंयम) स्वीकार किया, यावत् उस निर्वाण रूप अर्थ की नाराधना कर ली, यावत् वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त एवं सर्वदुःखों से रहित हुए। विवेचन-भगवान का धर्मोपदेश-श्रवण एवं दीक्षाग्रहण-मू. 15-16 में भगवान् की धर्मकथा सुनकर संसारविरक्त होकर ऋषभदत्त के द्वारा दीक्षाग्रहण, शास्त्राध्ययन, तपश्चरण, और अन्त में संल्लेखना-संथारापूर्वक, समाधिमरण की प्राराधनापूर्वक सिद्ध-बुद्ध-मुक्तदशा की प्राप्ति / यह जीवन का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया गया है।' कठिन शब्दों के अर्थ---इसिपरिसाए-क्रान्तदर्शी साधक मुनियों की सभा; ज्ञानी होते हैं, वे ऋषि हैं।' आलित्ते पलिते-प्रादीप्त- चारों ओर से जल रहा है। प्रदीप्त - विशेष रूप से जल रहा है। सामण्णपरियायं = श्रमणत्व-दीक्षा को। अत्ताणं झूसित्ता = अपनी आत्मा पर पाए हुए कर्मावरणों को भस्म करके आत्मा को शुद्ध करके अथवा संल्लेखना से प्रात्मा के साथ लगे हुए कषायों को कुश करके / सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेता = साठ टंक के चतुर्विध पाहाररूप भोजन के त्याग के रूप में अनशन (यावज्जीवन आहारत्याग) से छेदन (कर्मों को छिन्न-भिन्न करके या मोहनीयादि घाति-अघाति सर्व कर्मों का क्षय) करके / नग्गभाव = नग्नभाव का तात्पर्य निर्ग्रन्थभाव है / विचित्तेहिं तवोकम्मेहि-विविध प्रकार की तपश्चर्याओं से / 3 देवानन्दा द्वारा साध्वी-दीक्षा और मुक्ति प्राप्ति 17. तए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठा० समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी-- एवमेयं भंते !, तहमेयं भंते, एवं जहा उसभदत्तो (सु०१६) तहेव जाव धम्ममाइक्खियं / [17] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से धर्म सुन कर एवं हृदयंगम करके वह देवानन्दा ब्राह्मणी अत्यन्त हृष्ट एवं तुष्ट (आनन्दित एवं सन्तुष्ट) हुई और श्रमण भगवान् महावीर की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोली-भगवन् ! आपने 1. भगवती. (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 453 2. पश्यन्तीति ऋषयः ज्ञानिनः / भग. अ. वृ., पत्र 460 3. (क) भगवती. न वृत्ति, पत्र 460 (ख) भगवती, भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1702-1703 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org