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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [515 ऋषभदत्त द्वारा प्रवज्याग्रहण एवं निर्वाणप्राप्ति 15. तए णं समणे भगवं महावीरे उसमदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए य माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव' परिसा पडिगया। [15] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी तथा उस अत्यन्त बड़ी ऋषिपरिषद् आदि को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् वापस चली गई / 16. तए णं से उसमदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुठे उट्ठाए उठेड, उट्ठाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया० जाव नमंसित्ता एवं वयासी-'एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते !' जहा खंदओ (स०२ उ० 1 सु० 34) जाव 'से जहेयं तुभे वदह' ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति, सयमेव पंचमृद्रियं लोयं करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं क्यासी-आलिते णं भले ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, एवं जहा खंदओ (स० 2 उ०१ सु० 34) तहेब पच्चइओ जाव सामाइयमाइयाई इक्कारस अंगाई अहिज्जह जाव बहूहि चउत्थ-छ?-मुट्ठम-दसम जाब विचितहि तबोकम्मेहि प्रप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणइ, पाणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताणं भूसेति, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसित्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेति, सट्टि भत्ताई अणसणाए छेवेत्ता जस्सट्टाए कीरति नग्गभावो जाय तमळं आराहेइ, 2 जाव सम्वदुक्खप्पहीणे / [16. इसके पश्चात् वह ऋषभदत्त ब्राह्मण, श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म-श्रवण कर और उसे हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट होकर खड़ा हुआ / खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमन करके इस प्रकार निवेदन किया--'भगवन् ! आपने कहा, वैसा ही है, आपका कथन यथार्थ है भगवन् !' इत्यादि (दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक सू. 34 में) स्कन्दक तापस-प्रकरण में कहे अनुसार ; यावत्-जो आप कहते हैं, वह उसी प्रकार है।' इस प्रकार कह कर वह (ऋषभदत्त ब्राह्मण) ईशान कोण (उत्तरपूर्व दिशा भाग) में गया / वहाँ जा कर उसने स्वयमेव आभूषण, माला और अलंकार उतार दिये / फिर स्वयमेव पंचमुष्टि केशलोच किया और श्रमण भगवान महावीर के पास आया। भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा--भगवन् ! (जरा और मरण से) यह लोक चारों ओर से प्रज्वलित हो रहा है, भगवन् ! यह लोक चारों ओर से अत्यन्त जल रहा है, इत्यादि 1. 'जाव' पद से यहाँ---'मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, अणेगसयाए अणगसयविंदपरिवाराए,' इत्यादि पाठ समझना चाहिए। 2. पाठान्तर-आलितपलित णं भंते ! लोए जराए मरणेण य, एवं एएणं कमेणं इमं जहा खंदओं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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