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________________ 14] [ भगवतीसूत्र चातुरन्त-चक्रवर्ती, अप्रतिहत (निराबाध) ज्ञान-दर्शनधर, छमरहित (छलकपट और ज्ञानादि आवरणों से दूर), जिन (रागद्वेषविजेता), ज्ञायक (सम्यक् ज्ञाता), बुद्ध (समन तत्वों को जानकर रागद्वषविजेता), बोधक (दूसरों को तत्त्ववोध देने वाले), मुक्त (बाह्य-प्राभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित), मोचक (दुसरों को कर्मबन्धनों से मुक्त कराने वाले), सर्वज्ञ (समस्त पदार्थों के विशेष रूप से ज्ञाता) सर्वदर्शी (सर्व पदार्थों के सामान्य रूप से ज्ञाता) थे। तथा जो शिव (सर्व बाधाओं से रहित), अचल (स्वाभाविक प्रायोगिक चलन-हेतु से रहित), अरुज (रोगरहित), अनन्त (अनन्तज्ञानदर्शनादियुक्त), अक्षय (अन्तरहित), अव्याबाध (दूसरों को पीड़ित न करने वाले या सर्व प्रकार की बाधामों से विहीन), पुनरागमन रहित सिद्धिगति (मोक्ष) नामक स्थान को सम्प्राप्त करने के कामी (इच्छुक) थे। (यहाँ से लेकर समवसरण तक का वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए।) (भगवान् महावीर का पदार्पण जानकर) परिषद् (राजगृह के राजादि लोग तथा अन्य नागरिकों का समूह भगवान् के दर्शन, वन्दन, पर्युपासन एवं धर्मोपदेश श्रवण के लिए) निकली। (निर्गमन का समग्न वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए)। (भगवान् ने उस विशाल परिषद् को) धर्मोपदेश दिया। (यहाँ धर्मकथा का वर्णन कहना चाहिए)। (धर्मोपदेश सुनकर और यथाशक्ति धर्मधारण करके वह) परिषद् (अपने स्थान को) वापस लौट गई / (यह समग्र वर्णन भी औषपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। (3) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जेटु अंतेवासी इंदभूतो नाम अणगारे गोयमसगोत्ते णं सत्तुस्सेहे समचउरससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे पोराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखितविपुलतेयलेसे चउदसपुब्बी चउनाणोवगए सव्वक्सरसन्निवाती समणस्स भगवतो महावीरस्स प्रदूरसामंते उड्ढं जाणू अहोसिरे काणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (3) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पास (न बहुत दूर, न बहुत निकट). उत्कुटुकासन से (घुटना ऊंचा किये हुए) नीचे सिर झुकाए हुए, ध्यानरूपी कोठे (कोष्ठ) में प्रविष्ट श्रवण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार संयम और तप से आत्मा को भावित (वासित) करते हुए विचरण करते थे। वह गौतम-गोत्रीय श्रे, (शरीर से) सात हाथ ऊंचे, समचतुरस्र संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन वाले थे। उनके शरीर का वर्ण सोने के टुकड़े को रेखा के समान तथा पद्म-पराग के समान (गौर) था / वे उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, घोर (परीषह तथा इन्द्रियादि पर विजय पाने में कठोर), घोरगुण (दूसरों द्वारा दृश्चर मूलगुणादि) सम्पन्न, घोरतपस्वी, घोर (कठोर) ब्रह्मचर्यवासो, शरीर-संस्कार के त्यागी थे। उन्होंने विपुल (व्यापक) तेजोलेश्या (विशिष्ट तपस्या से प्राप्त तेजोज्वाला नामक लब्धि) को संक्षिप्त (अपने शरीर में अन्तर्लीन) करली थी, वे चौदह पूर्वो के ज्ञाता और चतुनिसम्पन्न सर्वाक्षरसन्निपाती थे। (4) तए णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले, उत्पन्नसड्ढे उत्पन्नसंसए उप्पन्नक्कोऊहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुष्पन्नसंसए समुप्पन्नकोहल्ले उट्टाए उट्ठति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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