________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१ [13 विवेचन प्रथम शतक का मंगलाचरण–यद्यपि शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया गया है, तथापि शास्त्रकार प्रथम शतक के प्रारम्भ में श्रुतदेवतानमस्काररूप विशेष मंगलाचरण करते हैं। प्राचारांग आदि बारह शास्त्र अर्हन्त भगवान् के अंगरूप प्रवचन हैं, उन्हीं को यहाँ 'श्रत कहा गया है / इष्टदेव को नमस्कार करने की अपेक्षा यहाँ इष्टदेव की वाणीरूप श्रत को नमस्कार किया गया है. इसके पीछे प्राशय यह है कि श्रत भी इष्टदेवरूप ही है, क्योंकि अर्हन्त भगवान् जैसे सिद्धों को नमस्कार करते हैं, उसी प्रकार णमो तित्थस्स' (तीर्थ को नमस्कार हो) कह कर परम आदरणीय तथा परम उपकारी होने से श्रुत (प्रवचन या सिद्धान्त)-रूप भावतीर्थ को भी नमस्कार करते हैं। श्रत भी भावतीर्थ है क्योंकि द्वादशांगी-ज्ञानरूप श्रत के सहारे से भव्यजीव संसारसागर से तर जाते हैं, तथा श्रुत अर्हन्त भगवान् के परम केवलज्ञान से उत्पन्न हुआ है, इस कारण इष्टदेवरूप है। गणधर ने श्रुत को नमस्कार किया है उसके तीन कारण प्रतीत होते हैं-(१) श्रुत को महत्ता प्रदर्शित करने हेतु, (2) श्रुत पर भव्यजीवों की श्रद्धा बढ़े एवं (3) भव्य जीव श्रुत का यादर करें, यादरपूर्वक श्रवण करें। प्रथम उद्देशक : उपोद्घात 4-(1) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था / वरुणनो। तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसौभागे गुणसिलए नाम चेइए होत्था / 4-(1) उस काल (अवसर्पिणी काल के) और उस समय (चौथे आरे-भगवान् महावीर के युग में) राजगह नामक नगर था। वर्णक / (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र में अंकित चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ लेना चाहिए) उस राजगृह नगर के बाहर उत्तर-पूर्व के दिग्भाग (ईशानकोण) में गुणशीलक नामक चैत्य (व्यन्तरायतन) था। वहाँ श्रेणिक (भम्भासार-विम्बसार) राजा राज्य करता था और चिल्लणादेवी उसकी रानी थी। (2) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे प्राइगरे तित्थगरे सहसंबुद्ध पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगणाहे लोगप्पदीवे लोगपज्जोयगरे अभयदये चक्खुदये मग्गदये सरगदये धम्मदेसए धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरनाणदसणधरे वियदृछउमे जिणे जावए बुद्ध बोहए मुत्ते मोयए सवण्ण सम्वदरिसी सिवमयलमरुजमणंतमक्खयमव्वाबाहं 'सिद्धिगति' नामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं / परिसा निग्गया / धम्मो कहियो / परिसा पडिगया। (2) उस काल में, उस समय में (वहाँ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरण कर रहे थे, जो आदि-कर (द्वादशांगीरूप श्रुत के प्रथम कर्ता), तीर्थकर (प्रवचन या संघ के कर्ता) सहसम्बुद्ध (स्वयं तत्त्व के ज्ञाता), पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह (पुरुषों में सिंह की तरह पराक्रमी), पुरुषवर-पुण्डरीक (पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक-श्वेत-कमल रूप), पुरुषवरगन्धहस्ती (पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान), लोकोत्तम, लोकनाथ (तीनों लोकों की आत्माओं के योग-क्षेमकर), (लोकहितंकर) लोक-प्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता (श्रुतधर्मरूपी नेत्रदाता), मार्गदाता (मोक्षमार्ग-प्रदर्शक), शरणदाता (बाणदाता). (बोधिदाता), धर्मदाता, धर्मोपदेशक, (धर्मनायक), धर्मसारथि (धर्मरथ के सारथि), धर्मवर१. भगवती अभयदेववृत्ति पत्रांक 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org