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________________ 12] [भगवतीसूत्र है / द्रव्यश्रुत भावश्रुत का कारण होने से संज्ञाक्षररूप (ब्राह्मीलिपिरूप) द्रव्यश्रुत को भी मंगलरूप माना है। बस्तुतः यहाँ नमस्करणीय भावश्रुत ही है, वही पूज्य है। अथवा शब्दनय की दृष्टि से शब्द और उसका कर्ता एक हो जाता है। इस अभेद विवक्षा से ब्राह्मीलिपि को नमस्कार भगवान् ऋषभदेव (ब्राह्मी लिपि के आविष्का) को नमस्कार करना है। अतः मात्र लिपि को नमस्कार करने का अर्थ अक्षरविन्यास को नमस्कार करना लिया जाएगा तो अतिव्याप्ति दोष होगा। यद्यपि प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, तथापि इस शास्त्र के लिए जो मंगलाचरण किया गया है, वह इस उद्देश्य से कि शिष्यगण शास्त्र को मंगलरूप (श्रुतज्ञानरूप मंगल हेतु) समझ सके / तथा मंगल का ग्रहण उनकी बुद्धि में हो जाए अर्थात् वे यह अनुभव करें कि हमने मंगल किया है।' शास्त्र की उपादेयता के लिए चार बातें-वत्तिकार ने शास्त्र की उपादेयता सिद्ध करने के लिए चार बातें बताई हैं--(१) मंगल, (2) अभिधेय, (3) फल और (4) सम्बन्ध / शास्त्र के सम्बन्ध में मंगल का निरूपण किया जा चुका है, तथा प्रस्तुत शास्त्र के विविध नामों का निर्देश एवं उनकी व्याख्या करके इस शास्त्र का अभिधेय भी बताया जा चुका है। अब रहे फल और सम्बन्ध / अभिधेय सम्बन्धी अज्ञान दूर होकर शास्त्र में जिन-जिन बातों का वर्णन किया गया है, उन बातों का ज्ञान हो जाना, शास्त्र के अध्ययन या श्रवण का साक्षात् फल है। शास्त्र के अध्ययन या श्रवण से प्राप्त हुए ज्ञान का परम्परा से फल मोक्ष है / शास्त्र में जिन अर्थों को व्याख्या की गई है, वे अर्थ वाच्य हैं, और शास्त्र उनका वाचक है। इस प्रकार वाच्य-वाचक भावसम्बन्ध यहाँ विद्यमान है, 'अथवा' इस शास्त्र का यह प्रयोजन है, यह सम्बन्ध (प्रयोज्य-प्रयोजक-भावसम्बन्ध) भी है। प्रथम शतक : विषयसूची मंगल २–रायगिह चलण 1 दुक्खे 2 कंखपरोसे य 3 पगति 4 पुढवीनो 5 / जावंते 6 नेरइए 7 बाले 8 गरुए यह चलणामी 10 // 1 // २-(प्रथम शतक के दस उद्देशकों को संग्रहणी गाथा इस प्रकार है-) (1) राजगृह नगर में "चलन" (के विषय में प्रश्न), (2) दुःख, (3) कांक्षा-प्रदोष, (4) (कर्म) प्रकृति (5) पृथ्वियाँ, (6) यावत् (जितनी दूर से इत्यादि), (7) नैयिक, (8) बाल, (6) गुरुक और (10) चलनादि / विवेचन--प्रथम शतक को विषयसूची–प्रस्तुत सूत्र में प्रथम शतक के दस उद्देशकों का क्रम इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। इनमें से प्रत्येक का स्पष्टीकरण मागे यथास्थान क्रिया जाएगा। ३-नमो सुयस्स। ३-श्रुत (द्वादशांगी रूप अर्हत्प्रवचन) को नमस्कार हो। 1. (क) एवं तावत्परमेष्ठिनो नमस्कृत्याऽधुनातनजनानांथ तज्ञानस्यात्यन्तोपकारित्वात् / तस्य च द्रव्यभाव श्रतरूपत्वात भावश्रुतस्य द्रव्यश्च तहेतुत्वात् संज्ञाक्षररूपं द्रव्यश्रतं....।'—भग. अ. वृ. पत्रांक 5 ख) 'लेहं लिवीविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिण करेणं / '-- भग. प्र. वत्ति, पत्रांक 5 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 5 - .. .. - .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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