________________ [11 प्रथम शतक : उद्देशक-१] रखते हैं और संघ को ज्ञान-दर्शन-चारित्र में स्थिर रखते हैं। इस महान् उपकार के कारण तथा ज्ञानादि मंगल प्राप्त कराने के कारण आचार्य नमस्करणीय एवं मांगलिक हैं। संघ में ज्ञानबल न हो तो अनेक विपरीत और अहितकर कार्य हो जाते हैं। उपाध्याय संघ में ज्ञानबल को सुदृढ़ बनाते हैं। शास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक ज्ञान उपाध्याय की कृपा से प्राप्त होता है, इसलिए उपाध्याय महान् उपकारी होने से नमस्करणीय एवं मंगलकारक है / मानव के सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ एवं परमसाधना के ध्येयस्वरूप मोक्ष की साधना-संयम साधना में असहाय, अनभिज्ञ एवं दुर्बल को सहायता देने वाले साधु निराधार के आधार, असहाय के सहायक के नाते परम उपकारी, नमस्करणीय एवं मंगलफलदायक होते हैं / अरिहंत तीर्थकर विशेष समय में केवल 24 होते हैं, आचार्य भी सीमित संख्या में होते हैं, अतः उनका लाभ सबको, सब क्षेत्र और सर्वकाल में नहीं मिल सकता, साधु-साध्वी ही ऐसे हैं, जिनका लाभ सर्वसाधारण को सर्वक्षेत्रकाल में मिल सकता है / पाँचों कोटि के परमेष्ठी को नमस्कार करने का फल एक समान नहीं है, इसलिए 'सवसाहूणं' एक पद से या 'नमो सव्व सिद्धाणं व नमो सम्बसाहणं' इन दो पदों से कार्य नहीं हो सकता / अतः पाँच ही कोटि के परमेष्ठीजनों को नमस्कार-मंगल यहाँ किया गया है।' द्वितीय मंगलाचरण-ब्राह्मी लिपि को नमस्कार-क्यों और कैसे? -अक्षर विन्यासरूप अर्थात्लिपिबद्ध श्रुत द्रव्यश्रुत है; लिपि लिखे जाने वाले अक्षरसमूह का नाम है / भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से लिखने के रूप में जो लिपि सिखाई, वह ब्राह्मी लिपि कहलाती है। ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करने के सम्बन्ध में तीन प्रश्न उठते हैं-(१) लिपि अक्षरस्थापनारूप होने से उसे नमस्कार करना द्रव्य मंगल है, जो कि एकान्तमंगलरूप न होने से यहाँ कैसे उपादेय हो सकता है ? (2) गणधरों ने सूत्र को लिपिबद्ध नहीं किया, ऐसी स्थिति में उन्होंने लिपि को नमस्कार क्यों किया ? (3) प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, फिर शास्त्र के लिए यह मंगल क्यों किया गया ? इनका क्रमशः समाधान यों है-प्राचीनकाल में शास्त्र को कण्ठस्थ करने की परम्परा थी, लिपिबद्ध करने की नहीं, ऐसो स्थिति में लिपि को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसका आशय वृत्तिकार स्पष्ट करते हैं कि यह नमस्कार प्राचीनकालिक लोगों के लिए नहीं, आधुनिक लोगों के लिए है। इससे यह भी सिद्ध है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है, यह नमस्कार शास्त्र को लिपिबद्ध करने वाले किसी परम्परानुगामी द्वारा किया गया है। अक्षरस्थापनारूप लिपि अपने ग्राप में स्वतः नमस्करणोय नहीं होती, ऐसा होता तो लाटी, यवनी, तुर्की, राक्षसी आदि प्रत्येक लिपि नमस्करणोय होतो, परन्तु यहाँ ब्राह्मी लिपि ही नमस्करणीय बताई है, उसका कारण है कि शास्त्र ब्राह्मोलिपि में लिपिबद्ध हो जाने के कारण वह लिपि आधुनिकजनों के लिए श्रुतज्ञान रूप भावमंगल को प्राप्त करने में अत्यन्त उपकारी 1. (क) नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमण भीतभूतानामनुप मानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोप कारित्वादिति / (ख) नमस्करणीयता चैपामविप्रणाशिज्ञानदर्शन सूखवीर्यादिगुणयुक्ततयास्त्रविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्याना मतीबोपकारहेतुत्वादिति / (ग) नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात / (घ) नमस्यता चैषांसुसम्प्रदायाप्तजिनवचनाध्यापनतो बिनयनेन भव्यानामुपकारित्वात् / (दुः। एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् ।।"--भगवती बत्ति पत्रांक 3-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org