SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [113 विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (10-11) में तीन बातों का विशेषरूप से निरूपण किया गया है(१) शंख श्रमणोपासक द्वारा साथी श्रमणोपासकों को विपुल भोजन तैयार कराने का निर्देश, (2) सभी परस्पर भोजन देते और करते हुए पाक्षिक पौषध करने का प्रस्ताव, तथा (3) साथी श्रमणोपासकों द्वारा उक्त प्रस्ताव का स्वीकार / कठिनशब्दार्थ-उवखडावेह-तैयार करायो / आसाएमाणा-प्रास्वादन करते हए; भावार्थ है गन्ने के टुकड़ों की तरह थोड़ा खाते हुए और छिलके आदि बहुत-सा भाग फेंकते हुए। विस्साएमाणा-विशेष प्रकार से प्रास्वादन करते हुए, भावार्थ है-खजूर आदि की तरह बहुत कम छोड़ते हुए / परिभाएमाणा-परस्पर एक दूसरे को परोसते-देते हुए / परि जेमाणा-सारा (थाली में लिया हुआ) ही खाते हुए, जरा भी झूठा न छोड़ते हुए। इन चारों में वर्तमान में चालू क्रिया का निर्देशक 'शान' प्रत्यय है, परन्तु ये वार्तमानिक प्रत्ययान्त शब्द भूतकालिक प्रत्ययान्तद्योतक समझना चाहिए। पक्खियं-पाक्षिक, पन्द्रह दिनों में होने वाला / पोसह-अव्यापाररूप पौषध, आहार-प्रत्याख्यान के अतिरिक्त अब्रह्मचर्य सेवन, रत्नादि आभूषण, माला-विलेपनादि शस्त्रमूसलादिक सावध व्यापार तथा स्नान शृगार एवं व्यवसाय के त्याग को ही यहाँ अव्यापारपौषध समझना चाहिए। पडिजागरमाणा-अनुपालन करते हए, अर्थात-पौषध करके धर्मजागरणा करते हए / विहरिस्सामो-एक अहोरात्र यापन करेंगे। पडिसणंति-सन कर स्वीकृति रूप में प्रत स्वीकार करते हैं।' पौषध के मुख्य दो प्रकार-प्रस्तुत पाठ से यह फलितार्थ निकलता है कि पौषध दो प्रकार का है.--(१) चतुर्विध प्राहारत्याग-पौषध और (2) याहार-सेवनयुक्त पौषध / प्रस्तुत में शंख श्रमणोपासक ने आहार-सेवनपूर्वक पौषध करने का विचार प्रस्तुत किया है, जिसे वर्तमान में देश पौषध, देशावकाशिकव्रत-रूप पौषध, अथवा दयाव्रत, या छकाया (षटकायारम्भ-त्याग) कहते हैं।' शंख श्रमणोपासक द्वारा प्राहारत्यागपूर्वक पौषध का अनुपालन 12. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था'नो खलु मे सेयं तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणस्स विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए / सेयं खलु मे घोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कमणि-सुवण्णस्स ववगयमाला-वण्णग-विलेवणस्स निक्खित्तसत्थ-मुसलस्स एगस्स अविइयस्स दब्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए'त्ति कटु एवं संपेहेति, ए० सं० 2 जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समशोवासिया तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 उप्पलं समणोवासियं पापुच्छति, उ० प्रा० 2 जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 पोसहसालं अणुपविसति, पो० अ० 2 पोसहसालं पमज्जति, पो० 502 उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेति, उ०प० 2 दब्भसंथारगं संथरति, द० सं० 2 दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहिता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी जाव पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरति / 1. भगवतीमुक्त, अभय. वृत्ति, पत्र 555 2. (क) भगवतीमूत्र, विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भा-४, पृ. 1975 (ख) अभिधान राजेन्द्र कोष, 'पोसह' शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy